Friday 13 March 2015

Jain Siddhant Dipika - Sutra 1/1 to 1/13

यह सारा संकलन "उपासक तत्व चर्चा' whatsapp ग्रुप पर जो चर्चा हुई, वहां से लिया गया है । इसमें मैंने सिर्फ संकलन किया है ।

उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं सत् । (10/32) गुणपर्यायाश्रयो द्रव्यम् (1/3)
जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है वह सत् है ।
गुण और पर्यायों के आश्रय- आधार को द्रव्य कहते हैं ।


जैन दर्शन में सत्, द्रव्य, तत्व, आदि शब्दों का प्रयोग प्राय: एक ही अर्थ में होता रहा है । जो सत् रूप प्रदार्थ है, वही द्रव्य है । सद् द्रव्यलक्षणम्

उत्तराध्ययन सूत्र में गुणाणमासओ दव्वंगुणों के आश्रय को द्रव्य कहा गया है ।

आचार्य उमास्वाति की द्रव्य की परिभाषा में विकास प्राप्त होता है । उन्होंने गुण के साथ पर्याय को भी स्थान दिया । गुणपर्याययवद् द्रव्यम्जो गुण ओर पर्याय से युक्त हो, वह द्रव्य है ।

गुण की परिभाषा के लिए बोला गया द्रव्याश्रया: निर्गुणा गुणा:द्रव्य जिसका आश्रय है तथा जो स्वयं अन्य गुणों को आश्रय नहीं देते, वे गुण है ।

इन दोनों परिभाषाओं में पुनरुक्ति आ रही है । जो गुणों का आश्रय है वह द्रव्य है, जो द्रव्य पर आश्रित है वह गुण है ।

अन्य जगह द्रव्य को प्रभाषित करते हुए लिखा गया – ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्सद् द्रव्यलक्षणम्। इससे पुनरुक्ति दोष समाप्त हो जाता है ।

इसलिए जो सत् है वही द्रव्य है एवं जो द्रव्य है वही सत् है तथा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इसका लक्षण है ।

आचार्य कुंदकुंद ने द्रव्य की सर्वांगीण परिभाषा दी,

: द्रव्य सदलक्ष्ण युक्त है, वह उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त है तथा गुण व पर्याय का आश्रय है ।



दर्शन के मुख्यत दो विषय है आत्म मीमांसा व् द्रव्य मीमांसा । कर्म पुनर्जन्म व् आत्मा भारतीय दर्शन के मुलभुत तत्व रहे है । इसलिए कर्म मीमांसा भी दर्शन के अन्तर्गत आ जाता है ।

जब आत्मा का सिद्धात पूरी तरह से प्रचलित नहीं था तो आयारो में लिखा गया मैं कौन हूँ व् कहा से आया हूँ । 500 साल बाद जब आत्म स्वरूप की जिज्ञासा शांत हो गयी तो आचार्य उमस्वाति जी को यह नहीं लिखना पड़ा मैं कौन हूँ उन्होंने तो मुझे अपना लक्ष्य कैसे पाना है वहा से अपने ग्रन्थ तत्वार्थसूत्र की शुरुआत की ।

2000 साल बाद आचार्य श्री तुलसी ने कालूतत्वशतक की शुरुआत आत्ममीमांसा से की जबकि जैन सिद्धांत दीपिका की शुरुआत द्रव्यमीमांसा से की ।

दार्शनिक दृष्टि से चाहे द्रव्य या विश्व को जानते हुए आत्म तक पहुंचे या फिर आत्म से जानते हुए विश्व तक । बात एक ही है।

आगम तो कहते भी जो एक को जानता है वो सब को जनता और जो सब को जानता है वो एक को जानता है ।
उत्पाद व्यय और ध्रौव्य को सरल उदहारण से समझने हेतु स्वर्ण हार से मुद्रिका निर्माण की बात बताई जाती है।

हार नष्ट हुआ यह व्यय हो गया। मुद्रिका या अंगूठी बनी यह उत्पाद हो गया। स्वर्ण तत्व पहले भी था अब भी है यह ध्रौव्य हो गया गुण सदा साथ रहता है। पर्याय बदलती रहती है।


बाकि दर्शनों में सत् क्या है व् जैन दर्शन उनसे कैसे भिन्न है यह भी समझना है

हर दर्शन की उत्पति दो प्रश्नों से होती है

1) मैं कौन हूँ ?

2) विश्व क्या है ?

एक नय से विचार करे तो जब हम 6 द्रव्य पर विचार करते है तो विश्व क्या है इसका उत्तर देते है, व जब 9 तत्वों पर विचार करते है तो मैं कौन हु इसका उत्तर देते है । इसी को जैन दर्शन का आस्तित्ववाद व उपयोगितावाद कहा गया ।

जब भी यह बोला जाए कि जैन दर्शन द्वैतवाद है तो ध्यान रखना है कि हमारा द्वैत वेदांत के द्वैत से अलग है । यह द्वैत का अर्थ जड़ व चेतन है, वेदांत में द्वैत का अर्थ ब्रह्मा व आत्मा का अलग-अलग होना है । वेदांत में दोनों जीव है, चेतन है । वेदांत में सत का अर्थ सिर्फ ब्रह्मा है, जो ध्रौव्य है । उत्पाद व व्यय कुछ नहीं है । बौद्ध दर्शन के लिए सुना है कि सत में सिर्फ पर्याय ही है, यानि उत्पाद व व्यय ही है


सोने की तरह ही दूध से दही , खीर आदि बनाए जाते हैं । यह भी उत्पाद और विनाश का क्रम है ।
इसी प्रकार पानी से बर्फ़ , भाप आदि पदार्थ बनते हैं । इन प्रतीकों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि -
उत्पाद , विनाश और ध्रौव्य साथ - साथ ही रहते हैं । इसी बात को ध्यान में रखकर भगवान महावीर ने त्रिपदी की प्ररूपणा की - उप्पणे इ वा , विगमे इ वा , धुवे इ वा ।

गुण दो प्रकार के होते है सामान्य गुण और विशेष गुण

प्रतिक्षण उत्पाद-व्यय,पर मूल में ध्रुव तत्व है,
'उप्पण्णे विगमे धुंवे वा' त्रिपदिका का सत्व है।
द्रव्य गुण पर्याय-परिणति-प्रक्रिया जो सीख ले,
प्रकृति का विज्ञान,श्रावक-ज्ञान की वनिका फले।।

चक्र उद्भव-मरण का,पर सदा शाश्वत जीव है,
स्वर्ण कंकण मुद्रिका का उदाहरण सजीव है।
हर विरोधी युगल का सापेक्ष सह अस्तित्व है,
प्रमुखता या गौणता ही व्यक्ति का व्यक्तित्व है।।

लक्षण - एक वस्तु को दूसरी वस्तुओं से पृथक करने वाला धर्म लक्षण है, आत्मा के लक्षण चेतन 

विशेष गुण जो धर्म कुछ द्रव्यों में हो, सभी में न हो, जैसे अमूर्त ।

कही-कही लक्षण को विशेष गुण में भी सम्मलित कर लिया जाता है । इसलिय हर लक्षण विशेष गुण होगा, पर हर विशेष गुण लक्षण नहीं ।

सामान्य गुण जो धर्म सभी द्रव्यों में हो, जैसे वस्तुतत्व आदि
तीर्थंकर प्रज्ञा-सम्पन्न गणधरों की प्रज्ञा की अपेक्षा से संक्षेप में बोलते है, सर्वसाधारण भोग्य भाषा में नहीं बोलते है । तीर्थंकर उत्पाद-व्यय एवम् ध्रौव्य रूप तीन मातृकापद का सम्भाषण करते है, द्वादशांग को नहीं कहते है । गणधर उस मातृका पद से द्वादशांगी की रचना करते है । अर्थ के करता तीर्थंकर एवम् सूत्र के करता गणधर होते है । इसका तातपर्य हुआ अर्थागम के करता तीर्थंकर एवम् सूत्रागम के करता गणधर है । अर्थागम के उपदेष्टा होने से तीर्थंकर आगमो के आदिस्त्रोत है,उनके द्वारा प्रवाहित ज्ञान गंगा गणधरों के माध्यम से आचार्य परम्परा के द्वारा परवर्तित होती हुई हमारे पास पहुंची है ।

जैन परम्परा के अनुसार सभी काल में होने वाले तीर्थंकर द्वादशांगी का उपदेश देते है अत: प्रवाह रूप से द्वादशांगी अनादि है । कोई ऐसा समय नहीं था जब द्वादशांगी नहीं थी । इसका तातपर्य द्वादशांगी द्वारा प्रतिपादित तत्व नित्य है । भाषात्मक स्वरूप नित्य नहीं है ।

गौतम स्वामी ने तीन निषद्या में 14 पूर्वो को ग्रहण कर लिया था । शेष गणधरों की निषद्या अनियत थी । आवश्यकचूर्णि में यह उल्लेख है कि 15 निषद्या में गणधरों ने द्वादशांगी का ग्रहण किया था । एक निषद्या से 11 अंग एवम् 14 निषद्या से 14 पूर्वो का प्रणयन किया । किन्तु किसी गणधर विशेष का नाम उल्लेख नहीं है ।

गणधर गौतम ने तीन निषद्या में 14 पूर्वो को ग्रहण किया । किन्तु 11 अंगो के लिए उन्होंने भगवान् से पूछे थे या नहीं ? अथवा उन 3 निषद्या के आधार पर ही सम्पूर्ण द्वादशांगी का निर्माण कर लिया था ? यह वर्णन नहीं है

प्रश्न - निषद्या का अर्थ क्या है ? प्रश्न या sittings.

पूर्वों का पद्य परिणाम 84 करोड़ के लगभग है । आचार्य भद्रवाहु तक यह परम्परा चली । सूत्र व् अर्थ दोनों में । वाणी से यह वाचना व् अर्थ बता पाना सम्भव नहीं लगता ।

क्या आज का द्वादशांगी का प्रारूप उस समय से अलग है ? क्योकि इसमें वो प्रश्न भी है जो भगवान के बाद के समय से सम्बंधित है । जबकि उप्पर लिखे अनुसार ये तो शुरू में ही रच दी जाती है
क्योंकि ठांण व् समवायो तो संकलन ग्रन्थ जैसे ही प्रतीत होते है ।


चौदह पूर्व -
1) उत्पाद पूर्व--
इसमें सभी द्रव्य और सभी पर्यायों की उत्पति का वर्णन है ।

2) अग्रायणीय पूर्व- 
इसमें सभी द्रव्य , सभी पर्याय और सभी जीवों के परिणाम का वर्णन है ।

3) वीर्यप्रवाद पूर्व-
इसमें कर्म सहित और बिना कर्म वाले सिद्ध जीवों तथा अजीवों के वीर्य ( शक्ति) का वर्णन है ।

4) अस्तिनास्ति प्रवाद पूर्व--
संसार में धर्मास्तिकाय आदि जो वस्तुएँ विद्यमान हैं तथा आकाश - कुसुम आदि जो अविद्यमान हैं , उन सभी का वर्णन है ।

5) ज्ञानप्रवाद पूर्व -
इसमें मतिज्ञान आदि ज्ञान के पाँच भेदों का विस्तृत वर्णन है ।

6) सत्यप्रवाद पूर्व--
इसमें सत्य रूप संयम या सत्य वचन का विस्तृत वर्णन है ।

7) आत्मप्रवाद पूर्व--
  इसमें अनेक नय तथा मतों की अपेक्षा से आत्मा का प्रतिपादन किया गया है ।

8) कर्मप्रवाद पूर्व-- 
इसमें आठ कर्मों की प्रकृति , स्थिति , अनुभाग और प्रदेश आदि भेदों का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है ।

9) प्रत्याख्यान प्रवाद पूर्व--
इसमें प्रत्याख्यानों का भेद - प्रभेद पूर्वक वर्णन है ।

10) विद्यानुप्रवाद पूर्व--
इस पूर्व में विविध प्रकार की विद्याओं तथा सिद्धियों का वर्णन है ।

11) अवन्ध्य पूर्व--
इसमें ज्ञान , तप , संयम आदि शुभ फल वाले तथा प्रमाद आदि अशुभ फल वाले अवन्ध्य अर्थात् निष्फल  नहीं जाने वाले कार्यों का वर्णन है ।

12) प्राणायुप्रवाद पूर्व---
इसमें दस प्राण और आयु आदि का भेद प्रभेद पूर्वक विस्तृत वर्णन है ।

13) क्रियाविशाल पूर्व -
इसमें कायिकी , अधिकरणिकी आदि तथा संयम में उपकारक क्रियाओं का वर्णन है ।

14) लोकबिन्दुसार पूर्व--
लोक में अर्थात् संसार में , श्रुतज्ञान में जो शास्त्र , बिन्दु की तरह सब से श्रेष्ठ है , वह लोकबिन्दुसार है ।



धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवास्तिकाया द्रव्याणि । (1/1)

--------अस्तिकायः प्रदेशप्रचयः । धर्मादयः पञ्चास्तिकायाः सन्ति ।

कालश्च । (1/2)

--------जीवाजीवपर्यायत्वादौपचारिकं द्रव्यमसावित्यस्य पृथग्ग्रहणम् । क्षणवर्तित्वान्न  चास्तिकायः ।

१. धर्मास्तिकाय ,अधर्मास्तिकाय ,आकाशास्तिकाय ,पुदगलास्तिकाय और जीवास्तिकाय ये द्रव्य है ।

प्रदेशों के समूह को अस्तिकाय कहते है ।धर्म आदि पांच अस्तिकाय है ।

  . काल भी द्रव्य है ।
काल जीव और अजीव का पर्याय होता है ।अत: यह औपचारिक द्रव्य है ।इस दृष्टि से इसका शेष पांच द्रव्यों से पृथ्क्् प्रतिपादन किया गया है ।

यह क्षणवर्ती होता है । इसका अतीत और भविष्य सत््् नही होता इसलिए यह अस्तिकाय नही है ।
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धर्मास्तिकाय , अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्य जीव व पुद्गल के लिए महान उपकारक है ।
इनके अस्तित्व , स्वरूप , गुण आदि की व्याख्या जैन दर्शन की अनुपम देन है ।


          

धर्मास्तिकाय , अधर्मास्तिकाय

आकाशास्तिकाय
जीवास्तिकाय
पुद्गलास्तिकाय
काल
द्रव्यत:
एक और व्यापक
एक और व्यापक
अनंत
अनंत
अनंत
क्षेत्रत:
लोक प्रमाण
लोक,अलोक प्रमाण
लोक प्रमाण
लोक प्रमाण
लोक,अलोक प्रमाण
कालत:
अनादि अनन्त
अनादि अनन्त
अनादि अनन्त
अनादि अनन्त
अनादि अनन्त
भावत:
अमूर्त
अमूर्त
अमूर्त
मूर्त
अमूर्त
गुणत:
गति सहायक, स्थिति सहायक
अवगाहन देनेवाला
चेतनत्व
स्पर्श ,रस, गंध,वर्ण
वर्तनाहेतुत्व
           






क्रम सिद्धि

प्रशस्त नाम होने से तथा लोकव्यवस्था का हेतु होने से धर्मास्तिकाय का ग्रहण आदि में हुआ है । धर्म द्रव्य सभी क्रियाओं का धारक है तथा मंगल अभिधानवाला है ।

तदन्तर तत्प्रतिपक्षभुत अधर्म द्रव्य को ग्रहण किया गया है । उसके बाद धर्म-अधर्म का परिछेद्य आकाश द्रव्य का क्रम प्रयुक्त है क्योंकि वह लोकालोकव्यापी है । अमूर्त क्रम से उसके बाद जीव को लिया गया है । तत्पश्चात् उसके उपयोगी/ उपग्रहक पुद्गल द्रव्य को लिया गया है । अतः में जीव अजीव का पर्याय होने से काल को लिया गया है ।

ज्यादातर जैन आचार्य इस क्रम के पक्ष में है । आचार्य मलयगिरि का क्रम निरूपण कुछ अलग है ।


आस्तिकाय

अस्ति=प्रदेश, अस्तित्व का वाचक
काय= (प्रदेश या जीवों का ) समूह

अनुयोग चूर्णि में अनेकांत को दर्शाता  अस्तिकाय शब्द :
अस्ति का अर्थ है ध्रौव्य ।
काय का अर्थ है उत्पाद और विनाश।
वह द्रव्य जिसमें  उत्पाद  विनाश और ध्रौव्य हो , वह अस्तिकाय है।

अस्तिकाय का सिद्धांत भगवान् महावीर का सर्वथा मौलिक सिद्धांत है । अस्तिकाय का प्रयोग अन्य किसी दर्शन में उपलब्ध नहीं है । यह अस्तित्व का वाचक है।  वेदांत में जैसे ब्रह्मा निरपेक्ष अस्तित्व है, जैन दर्शन में पांच अस्तिकाय निरपेक्ष अस्तित्व है । जैसे पुद्गल के परमाणु होते है, वैसे ही चार अस्तिकाय के परमाणु होते है । उनके परमाणु पृथक-पृथक नहीं होते, वे सदा अपृथक रहते है, इसलिए प्रदेश कहलाते है ।

अस्ति शब्द के दो अर्थ है -त्रैकालिक अस्तित्व और प्रदेश । काय का अर्थ है - राशि/ समूह ।

तत्त्वार्थभाष्य में अस्तिकाय में काय शब्द का ग्रहण क्यों किया गया, इसके दो कारण बतलाए गए है -
1. प्रदेश रूप अवयवों का बहुत्व दिखने के लिए और
2. काल का प्रतिषेध करने के लिए

काल का निषेध दो अर्थो में हो सकता है

1. काल के अस्तित्व का निषेध
2. काल के अस्तिकायत्व का निषेध

यहाँ पर काल का अस्तिकायत्व का निषेध ही अभिप्रेत है ।

आचार्यसिद्धसेनगणि ने अस्तिकाय में काय शब्द को उत्पाद व् व्यय की और संकेत करते हुए माना है व् अस्ति को ध्रुवता का ।

अस्तिकाय  शब्द से ज्ञात होता है कि धर्म आदि पाँचों द्रव्य नित्य तथा अस्तित्ववान है  तथा वे परिवर्तन का विषय बनते है । जैन का अस्तिकाय वेदांत के ब्रह्मा एवम् सांख्य के पुरुष की तरह कूटस्थ नित्य भी नहीं है तथा बौद्ध के पर्याय की तरह सर्वथा क्षणिक भी नहीं है । अपितु 'उत्पादव्ययध्रुवता' युक्त वस्तु-सत्य है ।

अस्तिकाय शब्द भी जैन का तत्व मीमांसान्तगर्त मौलिक शब्द है ।  

धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये तीनों संख्या की दृष्टि से एकव्यक्तिक है । जीव अनंत हैं । उन जीवों के समुदय का नाम जीवास्तिकाय है । परमाणु और पुद्गलास्तिकाय है । एक जीव जीवस्तिकाय नहीं कहलाता तथा एक कम जीव वाले जीवास्तिकाय को भी जीवास्तिकाय नहीं कहा जाता । सभी जीवों का समुदय जीवस्तिकाय कहलाता है । पुद्ग्लास्तिकाय का भी यही नियम है । जीवस्तिकाय व पुद्गलास्तिकाय को जब लोक प्रमाण कहा जाता है, तो उसका तात्पर्य धर्मास्तीकाय के लोक प्रमाण से अलग है । धर्मस्तिकाय अकेला है ही पुरे लोक में व्याप्त है, जब की लोक-आकाश का कोई भी भाग ऐसा नहीं है, यह जीव या पुद्गल न हो ।

एक दृष्टि से केवली समुद्घात व अचित महास्कन्ध के समय एक जीव या पुद्गल लोक-व्यापी हो सकता है । किन्तु अपेक्षा से समझना है ।


जीव जीवास्तिकाय का एक देश है । एक जीव के असंख्य प्रदेश है । जीव अनंत है । इस दृष्टि से जीवास्तिकाय के भी अनंत प्रदेश है ।​

उत्तरकालीन साहित्य में जीवास्तिकाय का प्रयोग एक जीव के लिए भी होता रहा है


१. पाँच द्रव्य अचेतन है,और एक जीवास्तिकाय चेतन है ।
२. पाँच द्रव्य अमूर्त है, और एक पुद्गलास्तिकाय मूर्त है ।
३. धर्म, अधर्म, आकाश और काल निष्क्रिय हैं, और पुद्गल सक्रिय हैं।
४. धर्म, अधर्म, आकाश ये तीनों एक हैं, और काल पुद्गल और जीव अनेक हैं।
५. व्यंजन पर्याय की दृष्टि से धर्म, अधर्म और आकाश - ये तीनों अपरिणामी है, तथा जीव और पुद्गल-   परिणामी है।
६. पाँच द्रव्य सप्रदेशी है, और काल अप्रदेशी है।





एक रूपक की अपेक्षा से 6 द्रव्य :-

जो भी शब्द लिखे जा रहे है वो धर्म की सहायता से गति करके हम सब तक पहुँच रहे है ! अधर्म की सहायता से हमारे पास रुक रहे है ! आकाश उनको स्थान दे रहा है ! वो शब्द पुद्गल है ! हमारे फ़ोन भी पुद्गल है ! उन शब्दों को  पढ़ने /समझने वाले हम सब जीव है ! जितना काल हम इनको समझने में लगा रहे है हमारा उतना काल सार्थक हो रहा है !



यह विश्व क्या है ?

सभी दर्शनों ने इसका उत्तर देने की कौशिश की है । किसी ने पांच तत्वों (पंचभुत)  से सृष्टि को निर्मित बताया जल, आकाश, अग्नि, वायु व पृथ्वी तो किसी दर्शन ने चेतन से सृष्टि को निर्मित किया । पश्चिम दर्शन के पास आत्मा का सिद्धान्त नहीं था तो वहा किसी दार्शनिक ने अग्नि को मूल तत्व व उससे सृष्टि का निर्माण माना तो किसी ने पानी से, तो किसी ने boundless something का प्रतिपादन किया, तो कोई वायु को मूल तत्व मानता है ।

लेकिन आज हम जानते है कि पानी मूल तत्व नहीं है वो तो खुद H2O से बना है ।  ऐसा ही अग्नि व वायु के सम्बन्ध में कहा जा सकता है 


वेदों में भी इस प्रश्न  पर चर्चा हुई, पर उत्तर नहीं मिला । वैदिक साहित्य में दर्शन उपनिषदों से शुरू हुआ ।


आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने उपनिषद में प्राप्त सृष्टि सम्बन्धी विचारों को चार भागो में विभक्त किया है :

1.       जगत् का मूल तत्त्व है - असत्

2.       जगत् का मूल तत्त्व है सत्

3.       जगत् का मूल तत्त्व है अचेतन (जड़ाद्वैतवाद पंचभूत)

4.       जगत् का मूल तत्त्व है चेतन (चैतन्याद्वैत ब्रह्मा)

जैन आगमों में विश्व में मूल तत्त्वों व उनके विस्तार को चार भागो में विभक्त किया गया :

1.  द्रव्य जीवद्रव्य व अजीवद्रव्य
2.  पंचास्तिकाय
3.  षडद्रव्य
4.  नवतत्व

जैन दर्शन ने मूल दो तत्वों को ही माना जीव व अजीव । बाकि तीनों इसका ही विस्तार है । विश्व व्यवस्था व अस्तित्व में पंचास्तिकाय व षडद्रव्य का विवेचन होता है तथा साधना की दृष्टि से नौ-तत्वों का ।

आगमकाल में पंचास्तिकाय का ही सिद्धांत था, उत्तरकाल में षडद्रव्य का सिद्धांत ज्यादा प्रचलित हो गया


विश्व-व्याख्या में जीव पुद्गल, आकाश तथा काल इन तत्त्वों की प्रस्तुति कई भारतीय व पाश्चात्य दार्शनिकों ने दी, किन्तु धर्म-अधर्म की स्वीकृति तत्त्ववाद के क्षेत्र में जैन दर्शन की मौलिक दें है । जैनेतर किसी भी दर्शन ने इस प्रकार की अभिव्यक्ति नहीं दी । भारतीय दर्शन में धर्म एवं अधर्म शब्द का प्रयोग तो हुआ है जिसका अभिप्राय है क्रमशः शुभकर्म एवं अशुभकर्म से है, किन्तु जैन जैन दर्शन की तत्त्व मीमांसा में आगत धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय का प्रयोजन उस अर्थ से सर्वथा भिन्न है । इनका जैन धर्म द्वारा प्रतिपादित विश्वव्याख्या में महत्त्वपूर्ण स्थान है ।




१. All 6 dravyas प्रति समय उत्पन्न होते हैं, विनाश को प्राप्त होते हैं और किसी रूप में स्थिर रहते हैं। इसीलिए सत् हैं।

२.  जैसे धर्मास्तिकाय के किसी एक प्रदेश में अगुरूलघुपर्याय असंख्यात हैं, दूसरे प्रदेश में अनंत हैं।, तीसरे में संख्यात है। इस तरह सब प्रदेशों में अगुरूलघुपर्याय घटता या बढ़ता रहता है।

३. यह अगुरूलघुपर्याय चल है। जिस प्रदेश में वह एक समय असंख्यात है दूसरे समय उसी प्रदेश में अनंत हो जाता है। इस प्रकार यह घटता बढ़ता रहता है। सिद्धों में भी सिर्फ यही अगुरुलघु पर्याय ही होता है ।

४.जिस प्रदेश में असंख्यातपना नष्ट हुआ अनंतपना उत्पन्न हुआ और दोनों अवस्थाओं में अगुरूलघुपना ध्रुव अर्थात् स्थिर रहा। इस तरह त्रिपदी यहाँ सिद्ध है।


५. इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के असंख्य प्रदेशों में, आकाश के अनंत प्रदेशों में, जीव के असंख्य प्रदेशों में और पुद्गलों में भी ये तीनों परिणाम हर क्षण होते हैं। काल में भी ये तीनों परिणाम बराबर हैं। क्योंकि वर्तमान नष्ट होकर जब अतीत रूप होता है। उस समय उसमें वर्तमान की अपेक्षा नाश, भूत की अपेक्षा उत्पत्ति और काल सामान्य रूप से ध्रौव्य अर्थात् स्थिरता रहती है। ये स्थूल रूप से उत्पाद , व्यय ,ध्रौव्य कहा गया।

६. ज्ञान आदि सूक्ष्म चीज़ों में भी ये तीनों परिणाम पाए जाते हैं। क्योंकि ज्ञेय बदलने से ज्ञान भी बदल जाता है। पूर्व पर्याय के ज्ञान का व्यय, उत्तर पर्याय के ज्ञान की उत्पत्ति और दोनों अवस्थाओं में ज्ञानपने की स्थिरता होती है। इस तरह सभी द्रव्यों में सत्व है।

७. इसी प्रकार सिद्धों में गुणों की प्रवृति रूप नवीन पर्याय का उत्पाद, पूर्व पर्याय का नाश, और सामान्य रूप से गुणों की ध्रुवता विद्यमान है।

८. जिस द्रव्य का उत्पाद,व्यय, ध्रौव्य रूप सत् एक है, वह द्रव्य भी एक है और जिसका उत्पाद,व्यय, रूप सत्व भिन्न है वह द्रव्य भी भिन्न है। जैसे कोई मनुष्यत्व को   क्षय कर देव रूप में उत्पन्न होता है यहाँ मनुष्यत्व का नाश देवत्व की उत्पत्ति दोनों एक ही जीव में होते हैं। इसलिए दोनों का आश्रय जीव द्रव्य एक है। जहाँ उत्पन्न कोई और हुआ और नाश किसी दूसरे जीव का हुआ, वहाँ पर्यायों का आधार भिन्न होने से द्रव्य भी भिन्न हैं।

९. जिस द्रव्य में अगुरूलघुपर्याय है उसमें हानि और वृद्धि होती है। वृद्धि का अर्थ है उत्पत्ति , हानि का अर्थ है व्यय। वृद्धि ६ प्रकार की  और हानि भी ६ प्रकार की है।


अनंत भाग वृद्धि, असंख्यात भाग  वृद्धि, संख्यात भाग  वृद्धि, संख्यात गुण वृद्धि, असंख्यात गुण वृद्धि, अनंत गुण वृद्धि , अनंत भाग हानि, असंख्यात भाग हानि, संख्यात भाग  हानि, संख्यात गुण हानि
असंख्यात गुण हानि, अनंत गुण हानि

एक संख्या लें। Suppose-1024. Ok now suppose अनंत is 8. असंख्यात is 4 and संख्यात is 2.

अनंत भाग वृद्धि, = 1024+ (1024 /8=128) 1024+128=1152
असंख्यात भाग  वृद्धि=1152+(1024/4=256)  1152+256=1408
Same way go on. Finish all 12.

अनंत भाग वृद्धि,  –------1152
असंख्यात भाग  वृद्धि------1408
संख्यात भाग  वृद्धि--------1920
संख्यात गुण वृद्धि---------3968
असंख्यात गुण वृद्धि-------8064
अनंत गुण वृद्धि----------16256
अनंत भाग हानि---------16128
असंख्यात भाग हानि-----15872
संख्यात भाग  हानि------15360
संख्यात गुण हानि------13312
असंख्यात गुण हानि-----9216
अनंत गुण हानि--------1024

हम तो यहा से चले थे 1024 से, वही पहुंच गए ।



जैन दर्शन में अस्तित्व का मतलब है परमाणु अथवा परमाणु स्कन्ध। धर्मा., अधर्मा., आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय - ये ४ परमाणु स्कन्ध हैं। इनके परमाणु कभी भी इनसे अलग नहीं होते हैं। इसलिए ये प्रदेश स्कंध कहलाते हैं। पुद्गलास्तिकाय के परमाणु स्कन्ध से जुड़े भी रहते हैं और उससे अलग भी रहते हैं। इसलिए इसमें परमाणु और परमाणु स्कन्ध दोनों अवस्थाएँ प्राप्त होती  हैं।

परमाणु और प्रदेश में संघातात्मक फ़र्क़ है परिमाणात्मक फ़र्क़ नहीं है।

please use point or unit for प्रदेश and atom for परमाणु । परमाणु = परम् + अणु.

Our parmanu is indivisible And same is the Pradesh.





गुणपर्यायाश्रयो द्रव्यम् । (1/3)

----- गुणानां पर्यायाणां  चाश्रय आधारो द्रव्यम् ।


गतिसहायो धर्मः  । (1/4)

-------गमनप्रवृत्तानां जीवपुद्गलानां गतावुदासीनभावेनाsनन्यसहायकं द्रव्यं धर्मास्तिकायः । यथा मत्स्यानां जलम् ।


स्थितिसहायोsधर्मः  । (1/5)

स्थानगतानां जीवपुद्गलानां स्थितावुदासीनभावेनाsनन्यसहायकं द्रव्यमधर्मास्तिकाय: । यथा- पथिकानां
छाया । 

जीवपुद्गलानां गतिस्थित्यन्यथानुपपत्ते:, वाय्वादीनां सहायकत्वेsनवस्थादिदोषप्रसंगाच्च धर्माधर्मयो: सत्त्वं प्रतिपत्तव्यम् । एतयोरभावादेवालोके जीवपुद्गलादीनामभाव: ।

हिन्दी  अनुवाद
 (1/3)
गुण और  पर्यायों के  आश्रय को द्रव्य  कहते है। (1/4)

गति में  असाधारणरूप  से सहायता करने वाले द्रव्य  को धर्म  कहते है।

गतिक्रिया-सूक्ष्मातिसूक्ष्म चांचल्य तक में  प्रवृत होने वाले जीव और  पुद्गगलों की गति में  अनन्य रूप से सहायता करने वाले द्रव्य  का नाम धर्मास्तिकाय है ।जैसे मछलियों की  गति  में  जल सहायक  होता है।

(1/5)

स्थिति में असाधारणरूप से  सहायता  करने वाले द्रव्य  को अधर्म  कहते हैं ।

जीव और  पुद्गगलों  की स्थिति में  अनन्य  रूप से  सहायता  करने  वाले  द्रव्य  को  अधर्मास्तिकाय कहते है।जसै-पथिकों को विश्राम  करने के लिए  वृक्ष  की छाया सहायक होती है ।
धर्मास्तिकाय और  अधर्मास्तिकाय  के  बिना जीव और  पुद्गगल की गति  एवं स्थिति  नहीं  हो सकती  और  वायु  आदि पदार्थों को  गति एवं स्थिति  का सहायक  मानने से अनवस्था आदि दोष उत्पन्न  होते है,अतः इन (धर्म  और अधर्म )का अस्तित्व  निःसंदेह  सिद्ध  है।अलोक में  धर्मास्तिकाय  और  अधर्मास्तिकाय  नहीं  है अतः वहां  पर जीव  और पुद्गगल  नहीं  जा सकते और  नहीं  रह सकते।


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द्रव्य = अस्तित्ववान्

जो भिन्न भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त हो, वह द्रव्य कहलाता है।
अर्थात् कि उत्पाद और विनाश को प्राप्त करते हुए भी जो ध्रुव बना रहे - वही द्रव्य है।
A. जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार-
१. द्रव्य जो पर्यायों को प्राप्त होता है, उनसे मुक्त भी होता है।
२. रूप आदि गुणों का समुदाय होता है।

B. उमास्वाति के अनुसार-
१. द्रव्य वह जो उत्पाद , व्यय , ध्रौव्यात्मक है।
२. द्रव्य वह जो गुण और पर्याय से युक्त हो।
"गुण पर्यववद् द्रव्यम्"।
द्रव्य तभी  द्रव्य जब उसमें गुण और पर्याय दोनों का योग हो।
= द्रव्य गुण पर्यायात्मक होता है।
द्रव्य गुण और पर्याय को आश्रय देता है।

द्रव्य का सहभावी धर्म गुण कहलाता है और
द्रव्य का क्रमभावी धर्म पर्याय कहलाता है

गुण के कारण ही एक द्रव्य की दूसरे द्रव्य  से पृथकता होती है।
जैसे -
जीव द्रव्य है। -> ज्ञान उसका गुण है। -> घटज्ञान, पटज्ञान उसकी पर्याय है।

धर्म, अधर्म द्रव्य हैं -> गति स्थिति में सहाय उनका गुण है -> तथा गतिशील, स्थितिशील पदार्थों के साथ संबंध होना उसकी पर्याय है।

पुद्गल द्रव्य है-> स्पर्श,रस, गन्ध, वर्णइसके गुण हैं-> घट, पट इत्यादि इसके पर्याय हैं।

काल द्रव्य है -> वर्तना उसका लक्षण है -> सैकण्ड,मिनिट, घण्टा इत्यादि इसके पर्याय हैं।

धर्मास्तिकाय

धर्म द्रव्य स्थिर सलिल की भाँति सहायक है , गतिशील अनिल की तरह नहीं ।

जैसे स्थिर जल मत्स्यों के लिए उदासीन सहायक है , वैसे ही धर्मद्रव्य जीवपुदगल के लिए साधन है , न कि गतिशील प्रभंजन की तरह , जो पताका की गति में हेतुभूत है ।

सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र , हरिभद्र , एवं आचार्य तुलसी ने गति उपकारक द्रव्य की व्याख्या करते हुए सलिल - झष उदाहरण ही प्रस्तुत किया है । कहीं अंधा और यष्टि,
ज्ञान व प्रकाश ( चक्षुष्मान व्यक्ति के लिए ) रेल एवं पटरियाँ आदि उदाहरण भी प्राप्त होते हैं ।

जहाँ मार्ग में पटरी है , रेल वहीं चलती है । बिना पटरी के उसकी गति अवरुद्ध हो जाती है । वैसे ही धर्मद्रव्य के अभाव में जीव व पुद्गल लोक - सीमा से परे अलोक में गति नहीं कर सकते ।

धर्मास्तिकाय के उपकार को दर्शाते हुये भगवान महावीर ने कहा --
धर्मास्तिकाय से जीवों के आगमन , गमन , बोलना, उन्मेष, मन , वचन और शरीर की क्रियायेंआदि समस्त चल भाव निष्पन्न होते हैं । यह द्रव्य न होता तो विश्व अचल ही होता।
विश्व के सभी चल- भाव धर्मास्तिकाय की सहायता से होते हैं ।

अधर्मास्तिकाय

अधर्मास्तिकाय के उपकार को दर्शाते हुये भगवान महावीर ने कहा -
स्थिति का सहारा नहीं होता तो -
खड़ा कौन रहता ?
कौन बैठता ?
कौन मन एकाग्र करता ?
कौन मौन होता ?
निस्पंद कौन होता ?
आँखों का मूँदना कैसे होता ?
यह विश्व चल ही होता ।
जो स्थिर है - उन सबका आलम्बन स्थिति सहायक तत्त्व अधर्मास्तिकाय ही है ।
यह उदासीन होते हुये भी अनिवार्य है क्यों कि इसके बिना जीव व पुद्गल की गति में नियमन नहीं हो सकता ।

ये दो उदासीन रूप से सहायक है । खुद न चलने की प्रेरणा देते है न रुकने की । जीव या पुद्गल चले तो उसमे सहायक रुके तो उसमे भी

Passive, not active
Auxiliary Cause,

इन दो द्रव्यों से आकाश लोकाकाश व अलोक में विभक्त होता है । लोक का जो आकार माना जाता है, वह वास्तव में इन दो द्रव्यों का ही आकार है

स्वंतत्र द्रव्य

आचार्य सिद्धसेन ने धर्म व अधर्म को स्वंतत्र द्रव्य मानने की आवश्यकता नहीं समझी । इस सन्दर्भ में उनका मत है कि गति दो प्रकार की होती है प्रयोगजन्य व स्वाभाविक । जीव ओर पुद्गल में दोनों प्रकार की गति होती है । अत: गति के लिए धर्मास्तिकाय की कोई उपयुज्यता नहीं है । यहाँ एक प्रश्न होता है कि जीव-पुद्गल की गति उक्त दोनों द्रव्य सापेक्ष नहीं, फिर जीव ओर पुद्गल अलोक में क्यों गति नहीं करते । इसका समाधान देते हुए वे कहते है लोक का सामर्थ्य ही ऐसा है कि लोकांत तक पहुंचते ही जीव पुद्गल की गति स्खलित हो जाती है ।

लेकिन और किसी भी आचार्य ने इस धारणा को मान्यता नहीं दी ।

दूसरी जगह आचार्य सिद्धसेन ने लिखा है ---- आकाश का गुण अवगाह देना है, जबकि अलोकाकाश अवगाह नहीं देता ऐसी स्थिति में क्या आकाश का लक्षण अव्याप्त लक्षणाभास से दूषित नहीं हो जायेगा ? स्व्यं सिद्धसेनगणि ही इसका उत्तर देते है और कहते है -----आलोक में भी अवगाह का गुण विद्यमान है । पर धर्म-अधर्म के अवभाव के कारण जीव व् पुद्गल वह नहीं जा सकते

इस तरह यहाँ पर उन्होंने धर्म-अधर्म को माना है ।

जब इस तरह एक ही लेखक दो भिन्न विचार रखे तो तो जो विचार बाद की रचना का हो उसको मान्यता मिलती है । अब दोनों में बाद की रचना कौनसी है यह तो अनुसन्धान का विषय है

Siddhasenagani के किसी लेखन पर आश्चर्य के स्थान पर आवश्यक है हम उनकी दृष्टि को आत्मसात करें। हमें अपनी पूर्वबद्ध समस्त धारणाओं को side करके बिलकुल उनकी तरह अभेद चक्षु से देखना होगा। उनकी जो सोच थी उस सीमा तक हर एक का पहुँचना इतना आसान नहीं। क्योंकि वे अभेदवाद के पुरस्कर्ता थे। जब भी कोई नयी परिभाषा आये तो मुझे दो ही आचार्य पहले दिमाग में आते है - सिद्धसेनगणि व् आचार्य महाप्रज्ञ । सिद्धसेन गणि ने गुण व् पर्याय को भी अभिन्न माना है और कहा है कि भगवान् महावीर ने सिर्फ द्रव्यर्थिकनय व् पर्यायर्थिक नय की स्थापना की है । गुणार्थिक नय की नहीं है ।  ऐसे ही आचार्य महाप्रज्ञ जी ने नियति को निकचित कर्म या universal law माना । जीव और पुद्गल के संयोग को स्नेह बद्ध माना । अमूर्त को independent आकार न लेने की क्षमता माना । जो कि बिलकुल नई परिभाषाये है ।



धर्म-अधर्म द्रव्य की अपेक्षा को प्रकट करते हुए पंडित सुखलाल कहते है जड़ ओर चेतन द्रव्य की गतिशीलता अनुभव सिद्ध है । यदि कोई नियामक तत्त्व न हो तो वे द्रव्य अपनी सहज गति से अनंत आकाश में कहीं भी जा सकते है । वे सचमुच अनंत आकाश में चले जाएँ तो इस द्र्श्याद्रश्य विश्व का नियत संस्थान जो सदा सामान्य रूप से एक सा नजर आता है वह किसी भी तरह घटित नहीं होगा । अनंत पुद्गल ओर अनंत जीव इकाइयां भी अनंत आकाश में स्वेच्छा से संचरित होने से ऐसे पृथक हो जाएंगी जिनका पुन मिलना ओर नियत सृष्टि के रूप में नजर आना असंभव नहीं तो दू:संभव अवश्य हो जाएगा । यही कारण है की गतिमर्यादा को नियंत्रित करने वाले तत्व धर्मास्तिकाय को जैन दर्शन स्वीकार करता है तदुपरांत तुल्य युक्ति से स्थिति मर्यादा के नियामक के रूप में अधर्मास्तिकाय तत्त्व को भी स्वीकार कर लेता है ।

इसी तरह से आकाश ये दोनों काम (गति व् स्थिति ) क्यों नही कर सकता, इसकी सिद्धि भी बतलाई गयी है, क्योंकि उससे फिर गति boundryless हो जाएगी



जीव-पुद्गल की गति लोक तक ही क्यों ? इस उत्तर में उत्तरकालीन साहित्य धर्मास्तिकाय का अभाव ही मानता है । परन्तु आगमों में ओर कारणों का भी उल्लेख है :

1.       गति का अभाव

2.       गति तत्व के आलम्बन का अभाव

3.       रुक्षता

4.       लोक की सहज मर्यादा



समस्त लोकांतों के पुद्गल दुसरे रुक्ष पुद्गलों के द्वारा अबद्ध और अस्पृष्ट होने पर भी लोकांत के स्वभाव से रुक्ष हो जाते है, जिससे जीव ओर पुद्गल लोकांत से बाहर जाने में समर्थ नहीं होते है । यहा ऐसा लगता है कि धर्मास्तिकाय के होने पर भी पुद्गल के सहयोग के बिना गति नहीं हो सकती ।



भगवती में एक प्रश्न उपस्थित किया गया है कि लोकांत में खड़ा रहकर देव अलोक में अपना हाथ हिला सकता है क्या ? उत्तर किया गया कि नहीं हिला सकता ओर उसका कारण वहां पर पुद्गल नहीं है बताया गया अत: गति नहीं है ।



परन्तु उत्तरकालीन व वर्तमान में सिर्फ व सिर्फ धर्मास्तिकाय को ही गति का सहायक माना जाता है

धर्म-अधर्म दोनों निष्क्रिय द्रव्य है ।

इसकी सिद्धि इस तरह से भी होती है ..... ये दोनों द्रव्य से एक व् क्षेत्र से लोक प्रमाण है । इसका तातपर्य हुआ कि ये दोनों एकात्मक होते हुए सर्वव्यापक है ।

जो एकद्रव्य के रूप में सर्वव्यापक है वह सक्रिय नहीं हो सकता अतः निष्कर्ष रूप इनकी निष्क्रियता सिद्ध हो जाती है ।

आसानी से समझने के लिए एक खाली बर्तन में उसी के आकार का कोई एक द्रव्य भर दिया जाये तो वो द्रव्य हिल नहीं सकेगा व् निष्क्रिय ही होगा

धर्म-अधर्म के अस्तित्व के सन्दर्भ में एक शंका यह भी की जाती है कि वे दोनों दिखाई नहीं देते फिर उसका आस्तित्व कैसे स्वीकार किया जाये ?

समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा गया - वे दोनों अमूर्त द्रव्य है । 'नोइन्दियजेज्झ अमुत्त भावा' । अमूर्त पदार्थ इन्द्रिय ग्राह्य नहीं होते, वे तो उपग्रह के द्वारा अनुमेय होते है । 'उपग्रहानुमेयत्वात्'

छद्मस्थो को अमूर्त्त पदार्थों का ज्ञान उनके कार्यों द्वारा होता है ।





अवगाहलक्षण आकाश: । (1/6)

-----अवगाहः- अवकाशः, आश्रय: । स एव लक्षणं यस्य स आकाशास्तिकायः । दिगप्याकाशविशेषो न तु द्रव्यान्तरम् ।


लोकोsलोकश्च । (1/7)


षड्द्रव्यात्मको लोक: । (1/8)

------अपरिमितस्याकाशस्य षड्द्रव्यात्मको भागो लोक इत्यभिधीयते । सः च चतुर्दशरज्जुपरिमाण: सुप्रतिष्ठकसंस्थान: तिर्यग् उर्ध्वोsधश्च । तत्र अष्टादशशतयोजनोच्छ्रितोsसंख्यद्वीपसमुद्रायामस्तिर्यक् । किञ्चिन्न्यूनसप्तरज्जुप्रमाण उर्ध्व: । किञ्चिदधिकसप्तरज्जुप्रमितोsध: ।

हिन्दी अनुवाद -

1/6 अवगाह देने वाले द्रव्य को आकाश कहते हैं । अवगाह का अर्थ है अवकाश या आश्रय ।
अवगाह है लक्षण जिसका वह आकाशास्तिका़य है । दिशाएँ आकाश के ही विभाग है ।
वे स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है ।

1/7 आकाश के दो भेद - लोक और अलोक ।

1/8 जो आकाश षटद्रव्यात्मक होता है , उसे लोक कहते हैं ।
वह लोक चौदह रज्जु परिमित और सुप्रतिष्ठित आकार वाला है ।
वह तीन प्रकार का है - तिरछा , ऊँचा और नीचा ।

तिरछा लोक अठारह सौ योजन ऊँचा और असंख्य - द्वीप -समुद्र- परिमाण विस्तृत है ।

ऊँचा लोक कुछ कम सात रज्जु  - प्रमाण है ।

नीचा लोक सात रज्जु से कुछ अधिक प्रमाण वाला है ।
___________________________________________________________________________

आकाश का अर्थ है - जिसमें जीव और पुद्गल को आश्रय प्राप्त हो , वह द्रव्य ।

एक आकाश द्रव्य ही आधार है , शेष सब द्रव्य आधेय हैं ।
आधार के अभाव में कोई पदार्थ चिक नहीं सकता ।
यह सारा संसार उसी गुण पर प्रतिष्ठित है ।
आकाश लोक तथा अलोक - दोनों में व्याप्त है ।
लोक - आकाश के प्रदेश असंख्य हैं ।
धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय के भी असंख्यात प्रदेश हैं । और एक - एक आकाश प्रदेश पर उनका एक - एक प्रदेश फैला हुआ है ।

एक आत्मा के प्रदेश भी असंख्य होते हैं । केवली - समुदघात के समय लोकाकाश के एक - एक प्रदेश पर आत्मा का एक - एक प्रदेश व्याप्त हो जाता है ।

आकाश का दूसरा भाग , जिसमें आकाश के सिवाय कुछ नहीं है , उसका नाम अलोक - आकाश है । यह लोक को चारों तरफ़ से घेरे हुए है और अनन्त है ।

So from above can we have a mathematical equation -

1. Number of Pardesha (points) of

Medium of Motion = Medium of Rest = cosmic space = Single Soul = innumerable

2. Size of each point of

Medium of Motion = Medium of Rest = cosmic space = Soul at the time of Kevlismudhghat

but not equal to size of pardesha of soul in other than Kevlismudhghat

लोक किसे कहते हैं ? -जीव और पुद्गल जिस क्षेत्र सीमा में  परिभ्रमण करते हैं , उसे लोक कहते है |

उत्तराध्ययन सूत्र ३६/२ में कहा है -----
जीवा चेन अजीव य ,
एस लोए वियाहिये ।
अजीव देसमागासे ,
अलोए से वियाहिए ।।

अर्थात् जीव और पुद्गल जहाँ रहते हैं ,
उसे लोक कहते हैं । अजीव के एक देशभाग आकाशास्तिकाय  मात्र जहाँ है , उसे आलोक कहते हैं
अथवा आकाश के जिस भाग में धर्मास्तिकाय , अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्य रहते हैं ,
वह लोक कहलाता है ।

अलोक कहाँ है। ?
लोक के बाहर छहों दिशाओं में अलोक है ।

अलोक कितना बड़ा है ?
अलोक अनन्त आकाश प्रदेशों है , इसका न कोई ओर है , न कोई छोर है । यह अनन्त व असीम है , जिसका कोई निश्चित परिमाप नहीं है ।

अलोक का आकार कैसा है ?
अनन्त व असीम होने से इसका कोई निश्चचित आकार भी नहीं है ।

अलोक में लोक किस प्रकार व्यवस्थित है ?
 अलोक अनन्ताअनन्त व अपरम्पार है ,
 जैसे किसी अति विशाल स्थान के मध्य में छींका लटका हो ,
 उसी प्रकार अलोक के मध्य में लोक है ।

लोक का आकार कैसा है ?
मिट्टी का एक सरावला ( सकोरा ) उल्टा रखकर उसपर एक मिट्टी का सीधा रखा जाए , तत्पश्चात एक दीपक पुन : उसके ऊपर उल्टा रखा जाए । उसका जो आकार / संस्थानतैयार होता है , वही आकार लोक का बताया गया है ।
ऊर्ध्व लोक का आकार मृदंग के समान है ।
अधोलोक का आकार
उल्टे सकोरे की आकृति के समान है ।

लोक कितना बड़ा है ?
लोक 14 रज्जू ऊँचा , ऊपर 1 रज्जू चौड़ा ,ऊपरी मध्य भाग में 5 रज्जू चौड़ा है ।फिर घटते - घटते मध्य में 1 रज्जू का चौड़ा रहता है ।तत्पश्चात क्रमश : विस्तृत होता हुआ नीचे 7 रज्जू चौड़ा है ।

इस प्रकार सम्पूर्ण लोक नीचे से ऊपर तक सीधा 14 रज्जू लम्बा है और घनाकार माप से 343 रज्जू परिमाण है । यानि सम्पूर्ण लोक के विषम स्थान को सम करने पर चौरस 7 रज्जू लम्बा , 7 रज्जू लम्बा , 7 रज्जू चौड़ा एवं 7 रज्जू मोटा ,इस प्रकार 7 x 7 x 7= 343 रज्जू होते हैं ।

ऐसे लोक के ---1 रज्जू के लम्बे ,1 रज्जू के चौड़े व1 रज्जू के मोटे ऐसे समचौरस खंड किए जाएँ तो सम्पूर्ण लोक के 343 खण्ड होते हैं , जिनमें से 196 रज्जू का अधोलोक एवं 147 रज्जू का ऊर्ध्वलोक होता है ।

यह विवर्ण दिगम्बर लोक का है ।


What is measurement of Rajju

i)     Asankhya yojan

ii)   3 करोड़ 81 लाख 12 हज़ार 970 मन से हज़ार गुन्  बड़े लोहे के गोले को कोई शक्तिशाली देवता ऊपर से नीचे फेंके तो वह गोली 6 महीने 6 दिन , 6 प्रहर ,6 घड़ी , 6 पल में जितने क्षेत्र को लाँघकर जावे उतने क्षेत्र को रज्जू परिमाण कहते हैं । यह औपमिक माप है । इसका प्रयोजन रज्जू का स्वरुप समझाना मात्र है ।

iii) One definition for rajju is 8000 miles x innumerable .


All the five substances, dharma etc , exist and have accommodation in cosmic space. Space however is not contained in anything, but self-subsistent. It has been conceived as containing six substances because it is the locus of all five substances and also of itself.

आकाश द्रव्य आधारभूत है । शेष आधेय है । आकाश स्वप्रतिष्ठित है । आकाश का वह भाग जो धर्म, अधर्म, काल पुद्गल व् जीव के द्वारा अवगाहित है वह लोकाकाश है।  यहाँ आकाश के अतिरिक्त अन्य द्रव्य नही है, वह अलोक है ।

खुद आकाश अखण्ड द्रव्य है । पर दूसरे द्रव्यों के कारण उसका विभाजन लोक व् अलोक में होता है ।

दिक् या दिशा  जैन दर्शन में आकाश का ही अंग है । कई दूसरे दर्शन इन दोनों को अलग अलग माना है । कुछ दर्शन शब्द को आकाश का गुण मानते है । जैन दर्शन में शब्द पौद्गलिक है व् आकाश का गुण नहीं है ।

मूर्त व् अमूर्त

एक परिभाषा यह है कि मूर्त जिसमे वर्ण, गंध, रस व स्पर्श हो ओर अमूर्त वह जिसमे ये चारो न हो । इस परिभाषा में आकार को महत्व नहीं दिया गया ।

दूसरी परिभाषा अमूर्त वह जिसका आकार न हो ।

एक बार मैंने आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी के एक व्याख्यान में सुना था कि मूर्त मूर्छ धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है मूर्तिमान । इसलिए अमूर्त हुआ जो मूर्तिमान नहीं है, जिसमे आकार लेने की क्षमता नहीं है ।

इस परिभाषा से जाए तो यह सही लगता है, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय ओर लोकाशातिकाय का आपना आकार नहीं है, परन्तु आकाशातिकाय के जितने प्रदेशो को धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय घेरते है, उतने को आकार मान लिया जाता है । अपना कोई आकार नहीं है ।

जीवास्तिकाय का भी अपना कोई आकार नहीं है, न  ही स्वंतत्र आकार ले सकता है । पुद्गल की सहायता से उसमे समा जाता है ओर उससे स्वंतत्र होता है उसी आकार में लोकाकाश में स्थित हो जाता है । तो इसलिए स्वतत्र आकार लेने में अक्षम है ।

इसलिए अमूर्त का 'स्वंतत्र आकार न लेने की क्षमता' परिभाषा अनुरूप बैठती है ।      

रूपी अरुपी और मूर्त अमूर्त को एक माने या भिन्न

रूपी - जिसका रूप / आकार है ।
अरुपी - जिसका रूप/ आकार नहीं है ।

मूर्त्त - जिसमें स्वंतत्र आकार लेने की क्षमता है ।
अमूर्त्त - जिसमें स्वतन्त्र आकार लेने की क्षमता नहीं है ।

जीवस्तिकाय का अपना आकार नहीं होता। जीव देह परिमाणी होता है।





"इस प्रकार सम्पूर्ण लोक नीचे से ऊपर तक सीधा 14 रज्जू लम्बा है और घनाकार माप से 343 रज्जू परिमाण है । यानि सम्पूर्ण लोक के विषम स्थान को सम करने पर चौरस 7 रज्जू लम्बा , 7 रज्जू लम्बा , 7 रज्जू चौड़ा एवं 7 रज्जू मोटा ,इस प्रकार 7 x 7 x 7= 343 रज्जू होते हैं ।...
 ऐसे लोक के ---1 रज्जू ...सम्पूर्ण लोक के 343 खण्ड होते हैं , जिनमें से 196 रज्जू का अधोलोक एवं 147 रज्जू का ऊर्ध्वलोक होता
है ।"

अभी तक तीन द्रव्यों पर चर्चा हुई है - धर्म, अधर्म व् आकाश ।

तीनों का हम पर उपकार है ।

1. सत् प्रवृति, धर्मचर्चा, गुरुदर्शन धर्मास्तिकाय के बिना नहीं हो सकते।

2. निवृति, मौन, ध्यान, निर्विचार अधर्मास्तिकाय के बिना नहीं हो सकता ।

3. आकाश का उपकार तो स्वत: सिद्ध है । आज कोई हमारी थोड़ी सी जगह भी ले ले तो लड़ाई की सम्भावना रहती है । हम छोटे से बड़े हो जाते है, पर आकाश हमेशा अवगाह देता रहता है ।




जीवपुद्गलयोर्विविधसंयोगै: स विविधरूप: । (1/9)

------इयं विविधरूपता एव सृष्टिरिति कथ्यते ।

संयोगश्चापश्चानुपूर्विक: । (1/10)

हिन्दी अनुवाद- १/९ जीव और पुद्गलों के विविध संयोगों से वह विविध प्रकार का है ।लोक की इस विविधरूपता को ही सृष्टि कहा जाता है ।

१/१० जीव और पुद््गल का संयोग अपश्चानुपूर्विक ( पौर्वापर्यशून्य ) है ।

__________________________________________________________________________

जीव और जड़ के सम्बन्ध की समस्या भारतीय एवं पाश्चात्य दार्शनिकों की चिंता का विषय रही है । इसके सम्बन्ध में मुख्त्य चार अवधारणाए मिलती है :

1)       चेतन है, जड़ का अस्तित्व ही नहीं है ब्रह्मवाद

2)       जड़ है, जड़ से भिन्न चेतन का स्वंतत्र ही नहीं है  - पंचभुतवाद, कुछ पाश्चात्य दर्शन

3)       जड़ और चेतन दोनों स्वंतत्र पदार्थ हैं किन्तु उनमें परस्पर सम्बन्ध नहीं होता । सांख्यमत

4)       जड़ और चेतन दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है तथा उनमें परस्पर सम्बन्ध भी होता है । जैन दर्शन, व अन्य द्वैतवाद



मूर्त व अमूर्त के सम्बन्ध पर भी प्रश्न दार्शनिक जगत में रहा । परन्तु जैन दर्शन में कर्म बन्ध, कर्मबद्ध जीव के ही होता है, कर्ममुक्त के नहीं । अत: मूर्त ही मूर्त को बांध रहा है ।



जीव और पुद्गल के सम्बन्ध को संसारी अवस्था के कारण भौतिक माना गया है । इस सम्बन्ध को दोनों ओर से माना गया है । इसके लिए शब्द आता है स्नेह-प्रतिबद्ध

आश्रव जीव का स्नेह है तथा आकर्षित होने की अर्हता पुद्गल का स्नेह है । स्नेह का सम्बन्ध जीव ओर पुद्गल दोनों से है । स्नेह-प्रतिबद्धशब्द की यह आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी की मौलिक व्याख्या है


जैन दर्शन जीव को सर्वथा अमूर्त नहीं मानता। उसके अनुसार जीव मूर्त भी है और अमूर्त भी है। जीव मूर्त क्यों है? कर्म राग वेद मोह लेश्या और शरीर =इन सबके कारण जीव मूर्त भी है । ये सब जैव जे साथ अत्यंत सघनता से जुड़े हुए है। जीव और पुदगल में अभेद भी है और भेद भी है। उनका एक दूसरे पर प्रभाव भी है। अकर्मा अरागी अवेदी अशरीरी जीव सर्वथा अमूर्त होता है।

अनेकांत का समाधान सूत्र -जीव मूर्तामूर्त है ।
उदहारण
1 अति स्थूल  पृथ्वी
2 स्थूल।   जल
3 स्थूल सूक्ष्म। छाया
4 सूक्ष्म स्थूल। चक्षु के सिवाय शेष चार इन्द्रिय के ज्ञेय विषय
5 सूक्ष्म । कर्म वर्गणा के स्कंध
6 अति सूक्ष्म । परमाणु

संसारी अवस्था के जीव को कथंचित मूर्त भी कहा गया है ।


जीव ओर पुद्गल का परस्पर अनेक प्रकार का सम्बन्ध है । भगवती में उनको एकत्र परिभोक्ता एवं परिभोग्य कहा गया है । जीव पुद्गल का परिभोग करता है, अत: वह परिभोक्ता है तथा पुद्गल जीव द्वारा परीगृहित होता है अत: उसे परिभोग्य कहा गया है । जीव चेतना युक्त होने के कारण पुद्गल का ग्राहक है तथा अचेतन होने के कारण पुद्गल ग्राह्य बनती है ।

जीव और कर्म के सम्बन्ध में आगम व उत्तरवर्ती साहित्य में कई विवेचन मिलते है, जिनमें से कुछ इस प्रकार है, जिनका कर्म विषय आने पर ओर खुलासा किया जा सकता है :



1.       दूध और पानी

2.       बादल का सूर्य को ढकना

3.       अक्षर का अनंतवा भाग नित्य उद्घाटित रहता है

4.       रुचक प्रदेशों का विशुद्द रहना

5.  आवेष्टन-परिवेष्टन (bound then rebound on that

ब्रह्मा व माया का सम्बन्ध, प्रकृति ओर पुरुष का सम्बन्ध, आत्मा और परमाणु का सम्बन्ध, नाम और रूप का सम्बन्ध, जीव ओर कर्म के सम्बन्ध उनकी मानने वाली परम्पराओं ने अनादि माना है । उनका परस्पर सम्बन्ध अनादि है ।

जैन दर्शन के अनुसार जीव ओर कर्म का सम्बन्ध अपश्चानुपूर्विकहै । अर्थात न पहले ण पीछे ।

जीव ओर कर्म के सम्बन्ध में पूर्वता एवं अप्रत मानने से अनेक कठिनाइयां उपस्थित होती हैं । यदि जीव पूर्व में हो कर्म बाद में तो तो कर्म-रहित जीव संसार में क्यों रहेगा ? यदि कर्म पहले हो जीव बाद में हो तो जीव के बिना कर्म किए किसने ? क्योंकि कर्म तो जीवकृत होते हैं, अत: जीव ओर कर्म में पौर्वापर्य नहीं है ।

रोह में प्रश्न मुर्गी व अन्डे में कौन पहले व कौन पीछे में भी यही उत्तर मिलते है । कबका समाधान कबहोगा या नहीं होगा या यही होगा ये सब अनंत काल के प्रवाह में सतत गतिशील रहने वाले प्रश्न हैं, जिनपर ऊहापोह होता रहेगा

अब यह चिंतन आ सकता है कभी इसे मुर्त कहते है कभी अमूर्त और आज नया शब्द आ गया मूर्तामुर्त
इसलिए अपेक्षा को समझना जरुरी है। जीव अमूर्त होता जब वह पूर्ण रूप से कर्म मुक्त हो जाता है
अमूर्त के साथ उसके पश्चात् मूर्त का संबध नहीं हो सकता
इसमें एक अंतर यह रहा कि जैन दर्शन ने कर्म को जीव से उतपन्न हुआ नही माना।  जैसा अन्य मतो ने ब्रह्मा-माया के बारे में माना ।

जैन दर्शन का अपश्चादनापूर्वी एक सिद्धांत है, तर्क नही । क्योंकि यह आगमिक उत्तर है





कर्म-शरीरोपग्रह-रूपेण त्रिविध: । (1/11)

.........उपग्रह:- आहार-वाङ्-मन-उच्छ्वासनि:श्वसा: ।


चतुर्धा तत्स्थिति: । (1/12)

.............यथा आकाशप्रतिष्ठितो वायु:, वायुप्रतिष्ठित उदधि:, उदधिप्रतिष्ठिता पृथिवी, पृथिवी प्रतिष्ठितास्त्रसस्थावरा जीवा: ।


शेषद्रव्यशून्यमाकाशमलोक: । (1/13)

हिन्दी अनुवाद -
१/११ संयोग तीन प्रकार का है -
१) कर्म  २)शरीर ३) उपग्रह

उपग्रह - आहार , वाणी , मन , उच्छवास - नि: श्वास आदि उपकारक शक्तियाँ ।

१/१२ लोक - स्थिति चार प्रकार की है ।
जैसे - आकाश पर वायु , वायु पर उदधि ( घनोदधि ), उदधि पर पृथ्वी और पृथ्वी पर त्रस - स्थावर प्राणी हैं ।

१/१३ जहाँ आकाश के अतिरिक्त कोई द्रव्य नहीं होता उस आकाश को अलोक कहते हैं ।

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अभी तक हमने

1. तीन द्रव्य का सवाधयाय किया है ।
2. जीव और अजीव के सम्बद्ध में लोक व् कर्म और जीव का सम्बन्ध अपश्चनापूर्वी पर कल स्वाध्याय किया ।

आज के पद लोक स्थिति पर आधारित है । इस पर आगमों में लोकस्थिति व् सार्वभौम नियम दो तरह से चर्चा मिलती है । आज दोनों तरह से चर्चा करने का प्रत्यन करेंगे ।

यह दृश्यमान जगत जगत् किस पर ठहरा हुआ है । पुराणों में शेषनाग, कच्छप आदि पर यह विश्व अवस्थित है एसी  विभिन्न अवधारणाए हैं । जैन दर्शन ने भी इस समस्या पर विचार किया है । जैन दर्शन के अनुसार लोक स्थिति के आठ प्रकार हैं

1.       वायु आकाश पर स्थित है ।

2.       समुन्द्र वायु पर अवस्थित है ।

3.       पृथ्वी समुन्द्र पर स्थित है ।

4.       त्रस-स्थावर जीव पृथ्वी पर स्थित है ।

5.       अजीव जीव पर प्रतिष्ठित है ।

6.       जीव कर्म से प्रतिष्ठित है ।

7.       अजीव जीव कर्म के द्वारा संगृहीत है ।

8.       जीव कर्म के द्वारा संगृहीत है ।

   

प्रश्न उठा आकाश किस पर प्रतिष्ठित है, समाधान दिया गया स्व-प्रतिष्ठित है । अगर आकाश भी किसी और पर प्रतिष्ठित होता, तो फिर उस तत्व के लिए प्रश्न उठता, तो एक अनवस्था दोष आ जाता । आकाश, वायु, जल और पृथ्वी ये विश्व के आधारभुत अंग हैं । विश्व की व्यवस्था इन्हीं के आधार-आधेय भाव से बनी हुई है । संसारी जीव और अजीव (पुद्गल) में आधार-आधेय और संग्राह्य संग्राहक भाव ये दोनों है । जीव आधार है और शरीर उसका आधेय । कर्म संसारी जीव का आधार ओर संसारी जीव उसका आधेय है ।

जीव, अजीव (भाषा वर्गणा, मन वर्गणा और शरीर वर्गणा ) का संग्राहक है । कर्म संसारी जीव का संग्राहक है ।

जीव और पुद्गल के सिवाय दुसरे द्रव्यों में आपस में संग्राह्य संग्राहक भाव नहीं है ।    

आलोक

यहा कोई भी द्रव्य नहीं है, वह आलोक है । जो अनंत है । अगर उसका अंत मान लिया जाए तो फिर प्रश्न आएगा उसके बाद क्या है, और फिर उसका नाम और फिर उसके बाद क्या । इसलिए अलोकाकाश अनंत है

आकाश-प्रतिष्ठित आकाश स्व-प्रतिष्ठित है, इसलिए उसका किसी पर प्रतिष्ठित होने का उल्लेख नहीं है । उदधि-प्रतिष्ठित पृथ्वी है । पृथ्वी उदधि पर प्रतिष्ठित है, यह सापेक्ष वचन है । ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी आकाश पर प्रतिष्ठित है । प्रथ्वी-प्रतिष्ठित त्रस-स्थावर प्राणी हैं । यह भी सापेक्ष वचन है । त्रस-स्थावर प्राणी आकाश, पर्वत और  विमान पर प्रतिष्ठित होते है । बहुलता की अपेक्षा से उदधि प्रतिष्ठित पृथ्वी एवं पृथ्वीप्रतिष्ठित त्रस-स्थावर प्राणी यह वक्तव्य दिया गया है

जीव-प्रतिष्ठित अजीव भगवती वृत्तिकार ने अजीव का अर्थ शरीर आदि पुद्गलकिया है । इसका तात्पर्य यह है कि अजीव-सृष्टि का जो नानात्व है, जितने दृश्य-परिवर्तन ओर परिणमन हैं वे जीव के द्वारा कृत है । जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह या तो जीवच्छरीर है या जीव-मुक्त शरीर है । इस अपेक्षा से अजीव जीव पर प्रतिष्ठित है

कर्म-प्रतिष्ठित जीव जीव का जितना नानात्व है, उसके जीतने परिवर्तन और विविध रूप हैं, वे सब कर्म के द्वारा निष्पन्न है । इस अपेक्षा से जीव को कर्म-प्रतिष्ठित कहा गया है । इस  सन्दर्भ में विभक्ति-भाव (जीव का चारो गतियों में भ्रमण, वो भी उन गतियों के अलग अलग विभाग में, जो कर्म के कारण है, किसी परिस्थिति, बाहरी वातावरण या ईश्वरकृत नहीं) का सूत्र भी दृष्टव्य है ।

जीव-संगृहीत अजीव कर्म का जीव के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है । इसलिए उनके द्वारा जीव में परिवर्तन घटित होता है । यहा प्रतिष्ठितकी व्याख्या आधाराधेय भाव के साथ तथा संगृहीतकी व्याख्या संग्राह्य-संग्राहक के साथ की है


आज लोकस्थिति पद है तो किसी के पास 'अवकशान्तर' पर कुछ हो तो share करे ।

अवकाशान्तर:-
अधोलोक में७पृथ्वियां हैं।
७ घनोदधि,७ घनवात , ७ तनुवात हैं।
७ अवकाशान्तर (तनुवात,घनवात, आदि के मध्यवर्ती आकाश)  है।
इन ७ अवकाशान्तरों में ७ तनुवात है।
इन ७ तनुवातों पर ७घनवात प्रतिष्ठित हैं।
इन ७घनवातों पर७ घनोदधि प्रतिष्ठित है।
इन ७ घनोदधियों पर ७ पृथिवियाँ हैं।
८ कृष्णराजियों के ८ अवकाशान्तर हैं।

८ कृष्णराजियों के ८ अवकाशान्तर हैं।
८ अवकाशान्तरों में ८ लौकान्तिक विमान हैं।
ये ८ लौकान्तिक देव वहाँ निवास करते हैं।
ये देव ऋषि तुल्य होते हैं। सर्वार्थसिद्धि में यह भी कहा है कि इन्हें १४ पूर्वों का ज्ञान होता है। ये एकान्त सम्यक्त्वी होते हैं।


अवकाशान्तर - आकाश लोक व् अलोक दोनों में विद्यमान है । लोक में सात अवकाशान्तर माने गए है । प्रत्येक पदार्थ में अवकाश होता है । परमाणु भी अवकाश शून्य नहीं है ।

विज्ञानं के परमाणु के दो भाग है । एलेक्ट्रोन व् प्रोटोन । इन दोनों के वीच अवकाश विद्यमान है ।

दुनिया के समस्त पदार्थों में यदि अवकाश निकाल दिया जाये तो उसकी ठोसता एक आंवले के आकार से बृहत् नहीं होती ।

अवकाश की इंग्लिश दी है interspace




लोक स्थिति में एक सन्दर्भ सार्वभौम नियमों का भी होता है ।

उसको यहा लिखा जा रहा है ।

विश्व-व्यस्था के सार्वभौम नियम

ईश्वरकर्तृत्ववादियों के अनुसार जगत्-व्यवस्था का नियामक ईश्वर होता है । जैन दर्शन जगत्कर्ता के रूप में किसी भी ईश्वर या ईश्वरीय शक्ति को स्वीकार नहीं करता है । उसके अनुसार इस विश्व के कुछ स्वत: संचालित सार्वभौम नियम हैं, उनके माध्यम से ही यह विश्व-व्यवस्था बनी हुई है ।

लोक-स्थिति उन सार्वभौम नियमों का ही निदर्शन है । स्थानांग (ठाणं) सूत्र में विश्व-व्यवस्था के संचालक दस नियमों का उल्लेख हुआ है । नियम और भी हो सकते है ।

सब नियमों को नय से समझना है ।

1.       जीव बार-बार मरते ओर पुन: वहीँ लोक में बार बार उत्पन्न होते है ।

2.       जीवों (संसारी) के सदा, प्रतिक्षण पापकर्म (ज्ञानावरण)  का बन्ध होता है ।  

3.       जीवों के सदा, प्रतिक्षण मोहनीय पापकर्म का बन्ध होता है ।

4.       जीव कभी अजीव नहीं हुआ और अजीव कभी जीव नहीं हुआ , न ऐसा हो रहा है, न ऐसा होगा ।                                                           

5.       न ही ऐसा हुआ है, न ऐसा हो रहा है और न ऐसा होगा, कि त्रस जीवों का व्यवच्छेद हो जाए और सब जीव स्थावर हो जाएँ, या  स्थावर जीवों का व्यवच्छेद हो जाए और सब जीव त्रस  हो जाएँ ।

6.       लोक कभी अलोक नहीं होगा और लोक कभी लोक नहीं होगा

7.       लोक कभी भी अलोक में प्रविष्ट नहीं होता और अलोक कभी लोक में प्रविष्ट नहीं होता ।

8.       जहाँ लोक है वहां जीव है ओर जहाँ जीव है वहा लोक है ।

9.       जहाँ जीव ओर पुद्गलों का गतिपर्याय है वहां लोक है ओर जहाँ लोक है वहां जीव ओर पुद्गलों का गतिपर्याय है ।

10.   समस्त लोकांतों के पुद्गल दुसरे रुक्ष पुद्गलों के द्वारा अबद्धपार्श्वस्पृष्ट (अबद्ध ओर अस्पृष्ट ) होने पर भी लोकांत के स्वभाव से रुक्ष हो जाते है, जिससे जीव ओर पुद्गल लोकांत से बाहर जाने में समर्थ नही होते ।

जैन दर्शन में और भी सार्वभौम नियम है जो जीव, कर्म, पुनर्जन्म आदि विषयों से सम्बन्धित है । वो भी आप सब यहा लिख सकते है ।   

और भी ऐसे कितने ही नियम खोजे जा सकते है । स्थानांग एक संख्या ग्रन्थ है । उसके दशवे शतक में यह निर्दिष्ट है । तो इसलिए इनको 10 तक ही सिमित रखा है ।

8 comments:

  1. Thanks.Vikasji. good collection.

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  3. ॐ अर्हम विकास जी

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  4. 'उपासक तत्त्व चर्चा" ग्रुप एवं संकलनकर्ता का हृदय से आभार| जैन दर्शन मे तत्त्व के निर्देश का अन्य दर्शनो से तुलनात्मक विवेचन बहुत ही सरल भाषा मे सुन्दर ढंग से कि गई जो वास्तव मे सहरानीय है |

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  6. कितनी उपयोगी और सार्थक चर्चा हुई थी। पूज्य प्रवर ने कानपुर मर्यादा महोत्सव 2015 के अवसर पर एक इंगित प्रदान किया था और उसी की पालना हम सबने की थी। डॉ मंजू जी नाहटा के प्रति आभार। उर्मिला जी सुराणा संभवतः एक मात्र ग्रुप सदस्य थी जिन्होंने पूरी दीपिका कंठस्थ कर ली थी।

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