Friday 13 March 2015

ईश्वरवाद : कर्मवाद


आचार्य श्री महाप्रज्ञ

अज्ञात रहस्यों को समझने के लिए दार्शनिको ने अनेक रहस्य स्थापित किये। कर्म के विषय में अनेक सिद्धांत स्थापित है। कुछ दार्शनिक केवल कर्मवादी है। कुछ कर्मवाद को मानते है पर ईश्वरवाद के सहचारी के रूप से उसे स्वीकार करते है। वे केवल कर्मवाद को नहीं मानते।

सृष्टि है परिवर्तनात्मक

जैन दर्शन कर्मवादी दर्शन है। ईश्वर का सिद्धांत उसे मान्य नहीं है। ईश्वर के लिए तीन कार्यो की कल्पना की गयी ---
(1) सृष्टि का कर्ता होना चाहिए,
(2) नियंता होना चाहिए,
(3) अच्छे और बुरे कार्य का फल भुगताने वाला होना चाहिए।

जैन दर्शन ने जगत को अनादि माना इसलिए उसे ईश्वर की कोई आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई। सृष्टि है नहीं। सृष्टि है तो केवल परिवर्तनात्मक। नया कुछ भी नहीं है, सब कुछ अनादि है। सृष्टि सादि हो सकती है।

सृष्टि का नियंता कोई नहीं

जैन दर्शन जगत को भी मानता है और सृष्टि को भी मानता है। जगत अनादि है, प्रत्येक पदार्थ अनादि है इसलिए अनादि सत्य है। प्रत्येक पदार्थ में परिणमन होता है, जीव और पुद्गल के संयोग से वैभाविक परिवर्तन होता होता है, वह सृष्टि है। सृष्टि जीव और पुद्गल के द्वारा सम्पादित होती है। जीव और पुद्गल के अतिरिक्त किसी तीसरी सत्ता को मानने की कोई आवश्यकता नही है।

दूसरा प्रश्न है नियमन का। जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि का नियंता कोई नहीं है। अगर कोई नियंता है, सर्वशक्तिमान है तो सृष्टि इस प्रकार की नहीं होती। इस त्रुटिपूर्ण व्यवस्था वाली सृष्टि के लिए अगर ईश्वर को नियंता माने और साथ-साथ में सर्वशक्तिमान भी माने तो दोनों में अन्तर्विरोध जैसा उपस्थित हो जाता है। यदि सृष्टि का करता सर्वशक्तिमान नहीं है तो वह सारी सृष्टि का अकेला नियमन नहीं कर सकता। यह नियमन वाली बात संगत प्रतीत नहीं होती
 
सृष्टि का नियमन नियम के द्वारा

जैन दर्शन ने नियंता की आवश्यकता अनुभव नही की। उसका सिद्धांत है नियम। सृष्टि का नियमन, नियम के द्वारा होता है, नियंता के द्वारा नहीं होता। हमारे जगत के कुछ सार्वभौम नियम है और अकृत्रिम है, किसी के द्वारा बनाये हुए नहीं है। जीव पुद्गल के स्वयंभू नियम है और वे नियम अपना काम करते है।

एक जीव को मोक्ष जाना है तो वह अपने नियम से जाएगा। एक पुद्गल को, परमाणु को बदलना है, तो वह अपने नियम से बदलेगा। एक परमाणु एक गुना कला है, और उसे अनन्त गुना कला होना है तो वह अपने नियम से होगा। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श का जितना परिवर्तन है वह सारा अपने नियम से होगा। निर्धारित समय पर उसे निश्चित रूप से बदलना ही पड़ेगा। यह प्राकृतिक नियम है, सार्वभौम नियम है और इस नियम से सारा नियमन हो रहा है। यह साडी ऑटोमैटिक व्यवस्था है, स्वयंकृत व्यवस्था है। बाहर से कृत या आरोपित व्यवस्था नहीं है, इसलिए नियंता की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।

कर्तृत्व: भोक्तृत्व

तीसरा प्रश्न है- कर्म का फल देने वाला कोई होना चाहिए। जैसे चोरी करने वाला चोर अपने आप उसका फल नहीं भुगतता। कोई न्यायाधीश होता है, दंड-नायक होता है, जो उसे दण्डित करता है, फल देता है, वैसे ही सरे जगत को अच्छे और बुरे कर्म (कार्य) का फल देने वाला भी कोई होना चाहिए। इस आधार पर कर्मफल-दाता की आवश्यकता कुछ दार्शनिको ने महसूस की। किन्तु जैनदर्शन ने इस आवश्यकता का अनुभव नहीं किया। जैनदर्शन का मंतव्य है- कर्म करने और उसका फल भोगने की शक्ति स्वयं जीव में निहित है। उसे बाहर कही से लाने की आवश्यकता नहीं है। अपना स्वयं का कर्तृत्व और अपना स्वयं का भोक्तृत्व - दोने उसमे समाहित है। इन तीन स्थितियों के आधार पर जैनदर्शन को ईश्वर की आवश्यकता दार्शनिक दृष्टि से महसूस नहीं हुई।

प्रयोजनवादी दृष्टि

एक संदर्भ है प्रयोजन का। प्रयोजनवादी दृष्टि भी कुछ प्रश्न उभरते है - ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण क्यों किया? वह क्यों जगत के प्रपंच में आया और वह क्यों सबकी व्यवस्था और नियमन करता है? वह अच्छा करने वाले को अच्छा और बुरा करने वाले को बुरा फल देता है। वह ऐसा क्यों करता है? उसका प्रयोजन क्या है? यह बड़ा जटिल प्रश्न है ईश्वरवादी के सामने। प्रयोजनवादी तर्क जब सामने आता है तो उसका संतोषजनक समाधान नही मिलता। यदि करुणा प्रयोजन है तो प्रश्न होगा - यह प्रयोजन कब पैदा हुआ? यदि कहा जाए -- जिस दिन ईश्वर जन्मा उसी किन प्रयोजन पैदा हो गया तो इसका अर्थ होगा -- ईश्वर और जगत का जन्म एक साथ हुआ। यदि ईश्वर पहले था और प्रयोजन कभी बाद में हुआ तो प्रश्न आएगा - प्रयोजन बाद में क्यों पैदा हुआ, पहले क्यों नहीं हुआ? उसका प्रयोजन आखिर क्या था? उतर किया गया--करुणा थी प्रयोजन। ईश्वर के मन में करुना जागी और उसने सृष्टि का निर्माण कर दिया।

एकोSहं बहुस्याम 
यह करुणावादी प्रयोजन वाली सृष्टि नही है। जहां इतनी क्रूरता और इतना आतंक है वहा करुणावादी दृष्टिकोण सफल नही होता। करुणा की बात समझ नहीं आती। दुसरे भी जितने प्रयोजन है उनकी कोई संगत व्याख्या सामने नहीं आती। इन सरे दार्शनिक बिन्दुओं के आधार पर जैनदर्शन ने ईश्वरवाद के आस्तित्व को नकार दिया। कहा जाता है --ईश्वर को अकेले रहना अच्छा नहीं लगा इसलिए उसने सोचा -- "एकोSहं बहुस्याम" मैं बहुत हो जाऊ। इसलिए वह एक से बहुत हो गया। जिस प्रकार से ईश्वर की कल्पना है उससे यह बात भी संगत नहीं लगती।


ईश्वरवाद-धार्मिक दृष्टिकोण 
हमारे सामने तीन दृष्टिकोण है --धार्मिक दृष्टिकोण, नैतिक दृष्टिकोण और दार्शनिक दृष्टिकोण। इन तीन बिन्दुओं पर ईश्वरवाद की यह अवधारणा सम्यक नहीं उतरती। 
जब प्रगति और परिवर्तन का अधिकार मनुष्य को नहीं है तो ईश्वर का अस्तित्व उसे संकट में डालने वाला है। मनुष्य न प्रगति कर सकता है और न परिवर्तन कर सकता है। जैसा है वैसा ही रहे। ये दोनों जब मनुष्य के साथ में नहीं है तो धार्मिक दृष्टिकोण से ईश्वर का आस्तित्व उसके लिए खतरनाक बन गया। इस धारणा ने रुढीवाद एवं निराशावाद को जन्म दिया और इसी निराशावादी दृष्टिकोण ने मनुष्य को अकिंचितर बना दिया।
ईश्वरवाद-नैतिक दृष्टिकोण
नैतिक दृष्टि से विचार करे - यदि मनुष्य का संकल्प स्वतंत्र नहीं है तो वह अपने कृत के प्रति उतरदायी नहीं हो सकता। वही व्यक्ति कृत के प्रति उतरदायी हो सकता है जिसका संकल्प स्वतंत्र है। व्यक्ति का संकल्प उसे अपने कृत के प्रति उतरदायी बनाता है। यदि कृत स्वतंत्र नहीं है, ईश्वर ने जैसा कराया वैसा उसने कर लिया तो वह अच्छे और बुरे का उतरदायी क्यों बनेगा? ईश्वर ने अच्छा कर लिया और बुरा कराया तो बुरा कर लिया। उतरदायी कराने वाला है या करने वाला है?
एक यंत्र उत्तरदायी नहीं हो सकता। एक लौह-मानव थोड़ी दूर चलता है और फिर गोली दागता है। प्रश्न प्रस्तुत होता है - उसका उतरदायी कौन हैक्या वह लौह-मानव है, यंत्र मानव है, रोबोट है? बिलकुल नहीं। उतरदायी है चलाने वाला। मनुष्य जिस प्रकार चलाता है, यंत्र-मानव उसी प्रकार चलता है। यदि मनुष्य वैसा ही यंत्र-मानव या लौह-मानव है तो वह अपने कृत का उतरदायी नहीं हो सकता। नैतिक दृष्टि से यह एक बड़ी समस्या पैदा हो जाती है, नैतिकता की बात एक प्रकार से समाप्त हो जाती है।
कर्मवाद के तीन सिद्धांत 
जैनदर्शन ने इस पर समग्रता से विचार किया। उसने पहला सूत्र दिया कर्मवाद का। हर आत्मा की स्वतंत्रता कर्मवाद का पहला आधार है। यदि व्यक्ति का संकल्प स्वतंत्र नहीं है तो वह अपने कृत के प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकता। संकल्प करने में वह स्वतंत्र है इसलिए कृत के प्रति उत्तरदायी है। वह अच्छा करता है तो उसका फल अच्छा होता है और बुरा करता है तो उसका फल बुरा होता है। अच्छे और बुरे का जिम्मेवार वह स्वयं है। यह संकल्प की स्वतन्त्रता कर्मवाद का पहला सिद्धांत है।


कर्मवाद का दूसरा सिद्धांत है --कृत का नैतिक जिम्मेवार व्यक्ति स्वयं है। वह अपने कृत के प्रति नैतिक दायित्व से अलग नहीं हो सकता। कोई भी काम करता है तो उसे यह उत्तरदायित्व लेना होगा की इसके लिए मैं स्वयं जिम्मेवार हूं।


कर्मवाद का तीसरा सिद्धांत है --व्यक्ति को प्रगति और परिवर्तन का अधिकार है। छोटे से छोटे प्राणी को भी ये दोनों अधिकार उपलब्ध है। एक एकेन्द्रिय प्राणी अपना विकास करते करते पचेन्द्रिय तक पहुंच जाता है, मनुष्य तक पहुंच जाता है, मुनि बन जाता है। आध्यात्मिक उत्क्रांति के पथ पर चलते-चलते वह वीतराग बन जाता है, केवली बन जाता है, मुक्त आत्मा भी बन जाता है। यह आधात्मिक उत्क्रांति का अधिकार प्रत्येक आत्मा को उपलब्ध है। प्रत्येक आत्मा इस उत्क्रांति के आधार पर आत्मा से परमात्मा बन सकती है।

अधिकार है परिवर्तन एवं प्रगति का

प्रश्न होता है -- आज मनुष्य जैसा है, क्या वह वैसा ही रहे? या अपने आपको बदल सके? जैनदर्शन ने व्यक्ति को परिवर्तन का अधिकार किया है। उसने कहा--हर आदमी बदल सकता है, परिवर्तन कर सकता है। अगर परिवर्तन न हो तो व्यक्ति की सारी साधना, तपस्या व्यर्थ बन जाए। इस बात में विश्वास नहीं किया जा सकता जो जैसा है, वैसा ही रहेगा। जिसका स्वभाव जैसा है, वैसा ही रहेगा। ऐसा वही मान सकता है, जिसने परिवर्तन को अस्वीकार किया है।

जैनदर्शन परिवर्तन और प्रगति को स्वीकार करता है, इसलिए उसमे तपस्या और साधना का मूल्य है। यदि उन्हें अस्वीकार किया जाए तो तपस्या और साधना का मुल्य समाप्त हो जाता है। क्रोध, अहंकार, लोभ, अभिमान, माया, भय, काम-वासना आदि-आदि जितने मोहकर्म के विकार है उन सबको बदला जा सकता है, उनमे परिवर्तन किया जा सकता है। यह व्यक्ति की अपनी स्वतन्त्रता है। इसी आधार पर साधना की पद्धति का विकास हुआ। तपस्या, ध्यान, स्वाध्याय -- इनका विकास परिवर्तन के सिद्धांत के आधार पर हुआ है। यह परिवर्तन का सिद्धांत नहीं होता तो साधना और का कोई अर्थ नहीं होता।

एक व्यक्ति उपवास करता है। यदि वह उपवास के द्वारा कुछ नहीं बदलता है तो उपवास करने की सार्थकता क्या होगी? यदि स्वाध्याय करता है और स्वाध्याय करने कोई चैतसिक परिवर्तन नहीं होता है तो स्वाध्याय की सार्थकता नहीं हो सकती। ध्यान, स्वाध्याय और तपस्या -- इन सबका विकास परिवर्तन के सिद्धांत के आधार पर हुआ है।



परिवर्तन का आधार

परिवर्तन का आधार है -- संकल्प की स्वतन्त्रता। इस स्वतन्त्रता ने ऐसा मार्ग दिया, जिसमे न रुढ़िवाद के पनपने की जरूरत है, न निराशावाद के पनपने की जरूरत है और न पलायन की जरूरत है। कोई भी जैन रुढ़िवाद होता है तो शायद उसने जैनधर्म के मर्म को समझा नहीं है। कोई भी जैन यदि परिवर्तन से कतरता है, परिवर्तन को नहीं मानता है, तो शायद उसने जैनधर्म के मर्म को नहीं नहीं समझा। कोई भी जैन अपने स्वभाव को न बदलने की दुहाई देता है तो शायद उसने जैनधर्म के मर्म को समझा नहीं है।

जैनधर्म निरंतर परिवर्तन की, उपशमन की प्रक्रिया है। हमेशा बदला जा सकता है, प्रत्येक क्षण बदला जा सकता है। जो पर्याय आधा घंटा पहले था वह अभी बदल गया। जो अभी है वह दस मिनट के बाद बदल जाएगा। यह निरन्तर परिवर्तनशील प्रक्रिया है। इसी आधार पर स्वतन्त्रता का सिद्धांत सार्थक बनता है।

एकांगी धारणा

जैनदर्शन के कर्मवाद के सिद्धांत को स्वीकार किया किन्तु कर्मवाद ईश्वरवाद का स्थान नहीं ले सकता। ईश्वरवादी कहते है -- ईश्वर के इच्छा के बिना कुछ भी नहीं होता, एक पत्ता भी नहीं हिलता। यदि जैन दर्शन यह मान ले की कर्म के बिना कुछ भी नहीं होता तो ईश्वरवाद और कर्म के सिद्धांत में कोई अंतर नहीं रह पता। कर्मवाद स्वयं ईश्वर के स्थान पर बैठ जाता है।

जो कुछ होता है वह सब कर्म होता है। यह बिलकुल एकांगी धारणा है। जैनदर्शन के अनुसार यह सही नहीं है, उचित नहीं है। कर्मवाद से सब कुछ नहीं होता। कर्म का स्थान सीमित है। एक सीमित स्थान में कर्म से कुछ होता है किन्तु सब कुछ नहीं होता। यदि सब-कुछ करने की क्षमता कर्म में आ जाये तो फिल ईश्वर और कर्म में कोई भेद-रेखा नहीं खींची जा सकती।

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