आचार्य श्री महाप्रज्ञ
अज्ञात रहस्यों
को समझने के लिए दार्शनिको ने अनेक रहस्य स्थापित किये। कर्म के विषय में अनेक
सिद्धांत स्थापित है। कुछ दार्शनिक केवल कर्मवादी है। कुछ कर्मवाद को मानते
है पर ईश्वरवाद के सहचारी के रूप से उसे स्वीकार करते है। वे केवल कर्मवाद
को नहीं मानते।
सृष्टि है
परिवर्तनात्मक
जैन दर्शन
कर्मवादी दर्शन है। ईश्वर का सिद्धांत उसे मान्य नहीं है। ईश्वर के लिए तीन कार्यो
की कल्पना की गयी ---
(1) सृष्टि का कर्ता होना चाहिए,
(2) नियंता होना चाहिए,
(3) अच्छे और बुरे कार्य का फल भुगताने वाला होना
चाहिए।
जैन दर्शन ने जगत
को अनादि माना इसलिए उसे ईश्वर की कोई आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई।
सृष्टि है नहीं। सृष्टि है तो केवल परिवर्तनात्मक। नया कुछ भी नहीं है,
सब कुछ अनादि है।
सृष्टि सादि हो सकती है।
सृष्टि का नियंता
कोई नहीं
जैन दर्शन जगत को
भी मानता है और सृष्टि को भी मानता है। जगत अनादि है, प्रत्येक पदार्थ
अनादि है इसलिए अनादि सत्य है। प्रत्येक पदार्थ में परिणमन होता है, जीव और पुद्गल के
संयोग से वैभाविक परिवर्तन होता होता है, वह सृष्टि है। सृष्टि जीव और पुद्गल के द्वारा सम्पादित होती
है। जीव और पुद्गल के अतिरिक्त किसी तीसरी सत्ता को मानने
की कोई आवश्यकता नही है।
दूसरा प्रश्न है
नियमन का। जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि का नियंता कोई नहीं है। अगर कोई
नियंता है, सर्वशक्तिमान है तो सृष्टि इस प्रकार की नहीं होती। इस त्रुटिपूर्ण व्यवस्था वाली सृष्टि के लिए अगर
ईश्वर को नियंता माने और साथ-साथ में सर्वशक्तिमान भी माने तो
दोनों में अन्तर्विरोध जैसा उपस्थित हो जाता
है। यदि सृष्टि का करता सर्वशक्तिमान नहीं है तो वह सारी सृष्टि का अकेला
नियमन नहीं कर सकता। यह नियमन वाली बात संगत प्रतीत नहीं होती
सृष्टि का नियमन
नियम के द्वारा
जैन दर्शन ने
नियंता की आवश्यकता अनुभव नही की। उसका सिद्धांत है नियम। सृष्टि का नियमन,
नियम के द्वारा
होता है, नियंता के द्वारा नहीं होता। हमारे जगत के कुछ
सार्वभौम नियम है और अकृत्रिम है, किसी के द्वारा बनाये हुए नहीं है। जीव
पुद्गल के स्वयंभू नियम है और वे नियम अपना काम करते है।
एक जीव को मोक्ष
जाना है तो वह अपने नियम से जाएगा। एक पुद्गल को, परमाणु को बदलना है, तो वह अपने नियम से बदलेगा। एक परमाणु एक गुना
कला है, और उसे अनन्त गुना कला
होना है तो वह अपने नियम से होगा। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श का जितना परिवर्तन है वह सारा अपने नियम से होगा। निर्धारित
समय पर उसे निश्चित रूप से बदलना ही पड़ेगा। यह प्राकृतिक
नियम है, सार्वभौम नियम है और इस नियम से सारा
नियमन हो रहा है। यह साडी ऑटोमैटिक व्यवस्था है, स्वयंकृत व्यवस्था है। बाहर से कृत या आरोपित व्यवस्था नहीं है,
इसलिए नियंता की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।
कर्तृत्व:
भोक्तृत्व
तीसरा प्रश्न है- कर्म का फल देने वाला कोई होना चाहिए। जैसे चोरी करने वाला चोर अपने आप उसका फल नहीं भुगतता। कोई न्यायाधीश होता है, दंड-नायक होता है, जो उसे दण्डित करता है, फल देता है, वैसे ही सरे जगत को अच्छे और बुरे कर्म (कार्य) का फल देने वाला भी कोई होना चाहिए। इस आधार पर कर्मफल-दाता की आवश्यकता कुछ दार्शनिको ने महसूस की। किन्तु जैनदर्शन ने इस आवश्यकता का अनुभव नहीं किया। जैनदर्शन का मंतव्य है- कर्म करने और उसका फल भोगने की शक्ति स्वयं जीव में निहित है। उसे बाहर कही से लाने की आवश्यकता नहीं है। अपना स्वयं का कर्तृत्व और अपना स्वयं का भोक्तृत्व - दोने उसमे समाहित है। इन तीन स्थितियों के आधार पर जैनदर्शन को ईश्वर की आवश्यकता दार्शनिक दृष्टि से महसूस नहीं हुई।
प्रयोजनवादी
दृष्टि
एक संदर्भ है प्रयोजन का। प्रयोजनवादी दृष्टि भी कुछ प्रश्न उभरते है
- ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण क्यों किया? वह क्यों जगत के
प्रपंच में आया और वह क्यों सबकी
व्यवस्था और नियमन करता है? वह अच्छा करने वाले को अच्छा और बुरा करने वाले को बुरा फल देता है। वह ऐसा क्यों करता है?
उसका प्रयोजन क्या है? यह बड़ा जटिल प्रश्न है ईश्वरवादी के सामने।
प्रयोजनवादी तर्क जब सामने आता है तो
उसका संतोषजनक समाधान नही मिलता। यदि करुणा प्रयोजन है तो प्रश्न होगा - यह
प्रयोजन कब पैदा हुआ? यदि कहा जाए -- जिस दिन ईश्वर जन्मा उसी किन प्रयोजन
पैदा हो गया तो इसका अर्थ होगा -- ईश्वर और जगत का जन्म एक साथ हुआ। यदि
ईश्वर पहले था और प्रयोजन कभी बाद में हुआ तो प्रश्न आएगा - प्रयोजन बाद में
क्यों पैदा हुआ, पहले क्यों नहीं हुआ? उसका प्रयोजन
आखिर क्या था? उतर किया
गया--करुणा थी प्रयोजन। ईश्वर के मन में करुना जागी और उसने सृष्टि का
निर्माण कर दिया।
एकोSहं बहुस्याम
यह करुणावादी प्रयोजन वाली सृष्टि नही है। जहां इतनी क्रूरता और इतना आतंक है वहा करुणावादी दृष्टिकोण सफल नही होता। करुणा की बात समझ नहीं आती। दुसरे भी जितने प्रयोजन है उनकी कोई संगत व्याख्या सामने नहीं आती। इन सरे दार्शनिक बिन्दुओं के आधार पर जैनदर्शन ने ईश्वरवाद के आस्तित्व को नकार दिया। कहा जाता है --ईश्वर को अकेले रहना अच्छा नहीं लगा इसलिए उसने सोचा -- "एकोSहं बहुस्याम" मैं बहुत हो जाऊ। इसलिए वह एक से बहुत हो गया। जिस प्रकार से ईश्वर की कल्पना है उससे यह बात भी संगत नहीं लगती।
हमारे सामने तीन दृष्टिकोण है --धार्मिक दृष्टिकोण, नैतिक दृष्टिकोण और दार्शनिक
दृष्टिकोण। इन तीन बिन्दुओं पर ईश्वरवाद की यह अवधारणा सम्यक नहीं उतरती।
जब प्रगति और परिवर्तन का अधिकार मनुष्य को
नहीं है तो ईश्वर का अस्तित्व उसे संकट में डालने वाला है। मनुष्य न प्रगति कर
सकता है और न परिवर्तन कर सकता है। जैसा है वैसा ही रहे। ये दोनों जब मनुष्य के
साथ में नहीं है तो धार्मिक दृष्टिकोण से ईश्वर का आस्तित्व उसके लिए खतरनाक बन
गया। इस धारणा ने रुढीवाद एवं निराशावाद को जन्म दिया और इसी निराशावादी दृष्टिकोण
ने मनुष्य को अकिंचितर बना दिया।
ईश्वरवाद-नैतिक दृष्टिकोण
नैतिक दृष्टि से विचार करे - यदि मनुष्य का
संकल्प स्वतंत्र नहीं है तो वह अपने कृत के प्रति उतरदायी नहीं हो सकता। वही
व्यक्ति कृत के प्रति उतरदायी हो सकता है जिसका संकल्प स्वतंत्र है। व्यक्ति का
संकल्प उसे अपने कृत के प्रति उतरदायी बनाता है। यदि कृत स्वतंत्र नहीं है, ईश्वर ने जैसा कराया वैसा
उसने कर लिया तो वह अच्छे और बुरे का उतरदायी क्यों बनेगा? ईश्वर ने अच्छा कर लिया और
बुरा कराया तो बुरा कर लिया। उतरदायी कराने वाला है या करने वाला है?
एक यंत्र उत्तरदायी नहीं हो सकता। एक लौह-मानव
थोड़ी दूर चलता है और फिर गोली दागता है। प्रश्न प्रस्तुत होता है - उसका उतरदायी
कौन है? क्या वह लौह-मानव है,
यंत्र मानव है, रोबोट है? बिलकुल नहीं। उतरदायी है चलाने वाला। मनुष्य जिस प्रकार चलाता है, यंत्र-मानव उसी प्रकार चलता है। यदि मनुष्य वैसा ही यंत्र-मानव या
लौह-मानव है तो वह अपने कृत का उतरदायी नहीं हो सकता। नैतिक दृष्टि से यह एक बड़ी
समस्या पैदा हो जाती है, नैतिकता की बात एक प्रकार से समाप्त
हो जाती है।
Thanks Vikas ji. So good article of Acharya Mahapragya ji.
ReplyDeleteshort and sweet. grateful to you.
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