Sunday 15 March 2015

संहनन - Sehnan - Laghu Dandak -3

तीसरा संहनन द्वार.......

संहनन – अस्थि-रचना अथवा शरीर में कठोर भाग की रचना, जिसके आधार पर शरीर का ढांचा बनता है । (जैपाश-   298  

सामान्य भाषा में हड्डियों  की रचना विशेष  को संहनन कहते है। संहनन अस्थि की रचना विशेष है । यह वैक्रिय शरीर में नहीं होता है । वैक्रिय शरीर में अस्थि, शिरा और स्नायु नहीं होते, इसलिए उसे संहनन शून्य कहा गया है । औदारिक शरीर धारक में ही होता है ।

संहनन का अर्थ है – अस्थि-सरंचना । यह अर्थ श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में सम्मत है, किन्तु यह विमर्शनीय है । एकेन्द्रिय जीवों के अस्थि-रचना नहीं होती, फिर भी श्वेताम्बर परम्परा में उनके ‘शेवार्त’ तथा दिगम्बर परम्परा में ‘असंप्राप्त सृपाटिका संहनन’ माना गया है । इस आधार पर संहनन की व्याख्या अस्थि-रचना से हटकर करने की अपेक्षा है । एकेन्द्रिय के सन्दर्भ को ध्यान में रखकर इसकी व्याख्या यह की जा सकती है – औदरिक शरीर वर्गणा के पुद्गलों से होने वाली शरीर-रचना का नाम है संहनन । (भ-1 113)      

संहनन  छह हैं- 1 .वज्रऋषभनारच, ऋषभनारच, नारच, अर्धनारच, कीलिका, सेवार्त। ((ठांण 6/30)

वज्रऋषभनारच संहनन – संहनन का एक प्रकार । वह अस्थि-रचना जो वज्र-कील, ऋषभ-वेष्टन, नाराच-दोनों ओर मर्कटबन्ध (परस्पर गुंथी हुई आकृति) वाली हो – जिसमें दो हड्डियों के छोर परस्पर मर्कटबन्ध से बंधे हों, उस पर तीसरी अस्थि का वेष्टन तथा उप्पर तीनों हड्डियों का भेदन करने वाली कील लगी हो । (जैपाश-  256)

ऋषभनारच संहनन – संहनन का एक प्रकार, जिसमें हड्डियों की आंटी व वेष्टन होते है, कील नहीं होती । (जैपाश-  75)

नारच संहनन – अस्थिरचना का एक प्रकार, जिसमें अस्थि के दोनों तरफ मर्कटबन्ध होता है । (जैपाश- 154)

अर्धनारच संहनन – वह अस्थिरचना, जिसमें हड्डी का एक छोर मर्कटबन्ध से बंधा हुआ होता है तथा दूसरा छोर कील से बंधा हुआ होता है । (जैपाश- 35)

कीलिका संहनन – संहनन का एक प्रकार, जिसमें अस्थियों के छोर परस्पर जुड़े हुए होते है – एक दुसरे से बंधे हुए होते है । (जैपाश- 92)

सेवार्त संहनन – वह अस्थि-रचना, जिसमें दो हड्डियों के पर्यन्त भाग परस्पर एक दुसरे को स्पर्श कर रहे हों । (जैपाश- 321)       


क्रम. दण्डक संहनन  संख्या संहनन  नाम
1. नारकी, देवता,तथा सिद्धों
0
कोई भी संहनन नहीं
2.  5 स्थावर, 3 विकलेन्द्रिय, असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय, असंज्ञी मनुष्य 
1
सेवार्त
3. गर्भज मनुष्य, तिर्यन्च 
6
सभी
4. सर्व युगलिया, 63 श्लाका पुरुष 
1
वज्रऋषभनारच 

1.     अंतिम 3 संहनन वाले 7वें गुणस्थान से आगे नहीं जाते। 7 वें में उदय व्युच्छित्ति।
2.     देव या नारक बनने के लिए पूर्व भव में संहनन आवश्यक है।
3.     संहननवाला ही योग्यतानुसार देव गति, नरकगति में जाता है।

4.     वज्रृऋषभनाराच ,ऋषभनाराच ,नाराच,अर्द्ध नाराच ये संहनन  वज्रस्वामी के साथ विच्छिन्न हो गए।ऐसा दशवै कालिक की भूमिका में उल्लेख है। यानि अभी शायद अंतिम दो ही संहनन हैं।


अस्थि-संरचना का साधना  और  स्वास्थ्य  दोनों दृष्टियों  से विशेष  महत्त्व  है ।

शुक्ल ध्यान  की साधना  के लिए  और  मोक्ष-गमन के लिए  वज्रऋषभनारच  संहनन  का होना जरूरी है ।
उत्कृष्ट  साधना   की भांति  उत्कृष्ट  क्रूर कर्म भी इसी अस्थि-रचना वाले प्राणी  करते  हैं । मोक्ष और सांतवी नरक में नियमा वज्रऋषभनारच संहनन वाले जीव ही जाते है अर्थात् कि अति अच्छे और अति बुरे दोनों कार्यों में पूरी शक्ति और और उत्तम संहनन की आवश्यकता है

वज्रऋषवनाराच सहनन मोक्ष जाने के लिए व् सातवी नरक जाने के लिए जरूरी है । पर वो होने से मोक्ष जायेगें ही या सातवी नरक जायेंगे ही, यह जरूरी नहीं । जलचर मोक्ष नहीं जायेगा व् स्त्री सातवी नरक नहीं जायेगी । जलचर मोक्ष नहीं जायेगा व् स्त्री सातवी नरक नहीं जायेगी । जबकि दोनों के वज्रऋषवनाराच सहनन होता है ।          

क्या इस पंचम आरे में छहों ही संहनन हैं ?
नहीं है। इस पंचम आरे में भरत क्षेत्र से कोई मोक्ष नहीं जाता, इसका एक कारण वज्रऋषभनाराच संहनन का अभाव है । इसी तरह इस पंचम आरे में भरत क्षेत्र में निश्चित वज्रऋषभनाराच संहनन वाले यौगलिक और 63 श्लाका पुरुष भी नहीं होते । तो अभी इसलिए भरत क्षेत्र (वज्रऋषभनाराच संहनन का अभाव के कारण) में मोक्ष व सातवीं नरक दोनों का अभाव है ।

1.     सातवीं नरक में प्रथम संहनन वाले ही जा सकते हैं।
2.     छठी नरक में प्रथम दो संहनन वाले जा सकते हैं।
3.     पांचवीं नरक में प्रथम तीन यानि नाराच वाले संहनन वाले तक जा सकते हैं।
4.     चौथी नरक में प्रथम चार संहनन वाले ही जा सकते हैं।
5.     तीसरी नरक में प्रथम पांच संहनन वाले जा सकते हैं।
6.     प्रथम दो नरक में छहों संहनन वाले जा सकते हैं।
7.     सेवार्त वाले सिर्फ प्रथम दो ही नरक में जा सकते हैं।
8.     7वीं नरक का द्वार तो सिर्फ मनुष्य व जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय के लिए ही खुला है । ____________________________________________________________________________
9.     प्रथम चार देवलोक में छह ही संहनन वाले जीव जा सकते हैं। भवनपति वाणव्यन्तर ज्योतिष्क में भी छह ही संहनन वाले जीव जा सकते हैं ।
10.  पांचवें, छठे देवलोक में प्रथम पांच संहनन वाले जीव जा सकते हैं।
11.  सातवें,आठवें देवलोक में प्रथम चार संहनन वाले जीव जा सकते हैं।
12.  नौवें से बारहवें देवलोक में प्रथम तीन संहनन वाले जीव जा सकते हैं।
13.  नौ ग्रैवेयक में प्रथम दो संहनन वाले जीव जा सकते हैं।
14.  पांच अनुत्तर विमान में प्रथम एक ही संहनन वाले जीव जा सकते हैं।


एक तथ्य उभर कर आया कि अभवी जीव भी ऋषभनाराच संहनन वाला हो सकता है । वज्रऋषभनाराच भी हो सकता है । वज्र ऋषभनाराच मोक्ष जाने के लिए आवश्यक है, पर जायेगा ही आवश्यक नहीं

सभी 63 शलाका पुरुष भवी ही होते हैं ।

आहारक शरीर के साथ क्या संहनन का सम्बन्ध है ?

आहारक शरीर के साथ प्रथम तीन संहनन का सम्बन्ध है। कारण: 7 गुण. के बाद प्रथम तीन संहनन का उदय नहीं।
तीन हीन संहनन वाले जीव तो श्रेणी चढ़ ही नहीं सकते । शरीर की शक्ति की अपेक्षा तीन प्रथम संहनन जोकि उत्तम है -उपशम श्रेणी चढ़ने वाले साधु इन तीन संहनन में से किसी एक संहनन वाले होते है किन्तु क्षपक श्रेणी चढ़ने के लिए अर्थात चारित्र मोहनीय के क्षय करने के लिए मात्र वज्रऋषभनाराच सहनन आवश्यक है! ये दोनों श्रेणी चढ़ने वाले मुनिराज की शारीरिक शक्ति की अपेक्षा अंतर होता है ।


संहनन – अस्थिसंचय से उपमित शक्ति विशेष, जैसे – देवों का शरीर । (जैपाश-298)

संहनन नाम – नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से औदरिक शरीर में अस्थि तथा कठोर भाग की रचना होती है । (जैपाश-298)

संहनन बन्ध – अवयवों तथा पृथक-पृथक वस्तुओं का संघात । बैलगाड़ी के अवयवों का संयोजन देशसंहनन बन्ध और दूध-
पानी की भांति मिलन सर्वसंहनन बन्ध है । (जैपाश-299)

शरीर - Sharir, Types of Bodies - Jainism - Laghu Dandak - dvar 1



शरीर

पौद्गालिक सुख-दु:खानुभवसाधनं शरीरम् – आत्मा को जो पौद्गलिक सुख-दुःख का जितना अनुभव वह सब शरीर के द्वारा ही होता है ।
जिसके द्वारा चलना, फिरना खाना-पीना आदि क्रियाएं होती है, प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होना जिसका स्वभाव है, जो शरीर नामकर्म के उदय से बनता है और जो संसारी आत्माओं का निवास स्थान होता है, उसे शरीर कहते है ।
शरीर - विनाशशील होने के कारण इसका नाम शरीर है ।

शरीर पाँच हैं -

औदारिक , वैक्रिय , आहारक , तैजस , कार्मण (ठांण 5/25)

औदारिक शरीर – स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न रस आदि धातुमय शरीर । यह औदारिक शरीर मनुष्य और तिर्यन्चों के ही होता है । (जैपाश 80)

यह शरीर आत्मा से अल्ग हो जाने के बाद भी टिक सकता है । इसमें छेदन, भेदन हो सकता है । इसमें हाड, मांस, रक्त आदि होते है । इसका स्वभाव है गलना, सड़ना व विनाश होना ।
मोक्ष की प्राप्ति सिर्फ इसी शरीर से हो सकती है ।

औदरिक शरीरधारी जीव अनन्त है किन्तु औदरिक शरीर की संख्या असंख्य ही होती है । जीव अनन्त एवं शरीर असंख्य कैसे
इस प्रश्न को समाहित करते हुए कहा गया कि प्रत्येक शरीरी जीव असंख्य होते है अत: उनके शरीर भी असंख्य होगे तथा साधारण शरीर जीव अनन्त होते है किन्तु वे एक शरीर में अनन्त जीव रहते है, उनके शरीर असंख्य होते है इस प्रकार औदरिक शरीरधारी जीवों के अनन्त होने पर भी  औदारिक शरीर तो असंख्य ही होते है

वैक्रियशरीर – विविध रूप बनाने में समर्थ शरीर । यह नैरयिक तथा देवों के जन्मजात होता है । वैक्रिय लब्धि से सम्पन्न  मनुष्यों और तिर्यन्चों तथा वायुकाय के भी होता है । (जैपाश 273)  

जिस शरीर से विविध क्रियायें होती है तथा जो वैक्रिय पुद्गलों से बना होता है उसे वैक्रिय कहते हैं ।

विविध क्रियायें -- एक स्वरुप धारण करना ,  अनेक स्वरुप धारण करना , छोटा शरीर धारण करना , बड़ा शरीर धारण करना , आकाश में चलने योग्य शरीर धारण , भूमि पर चलने योग्य शरीर धारण करना , दृश्य शरीर धारण करना , अदृश्य इत्यादि अनेक प्रकार की अवस्थाओं को वैक्रिय शरीरधारी कर सकता है ।

इस शरीर में हाड़ - मांस - रक्त नहीं होता । मृत्यु के बाद इस  का कोई अवशेष नहीं रहता । यह कपूर की भाँति उड़ जाता है ।
वैक्रिय शरीर दो प्रकार का होता है ---

१) औपपातिक ( उत्पति के समय ) - नारक व देवों के यह शरीर औपपातिक कहलाता है । अर्थात् जन्म के समय से ही उनके यह शरीर सहज होता है ।

देवो का शरीर वैक्रिय होता है । वे वैक्रिय शरीर के द्वारा नाना रूपों का निर्माण करते है, किन्तु बाहरी पुद्गलों (वैक्रिय वर्गणा के पुद्गल) का ग्रहण किए बिना नहीं कर सकते । (भ2 -309)   

२) लब्धि प्रत्यय ( लब्धि से प्राप्त ) - लब्धि - प्रत्यय वैक्रिय शरीर --- मनुष्य व तिर्यंच तप आदि के द्वारा प्राप्त की हुई शक्ति विशेष के द्वारा वैक्रिय लब्धि प्राप्त कर इस शरीर का निर्माण कर सकते हैं । परन्तु मनुष्य व तिर्यंच को एक मुहूर्त के अन्दर ही पुनः: अपने औदारिक शरीर में प्रवेश करना पड़ता है ।

वायुकायिक जीवों के स्वाभाविक रुप से वैक्रिय शरीर होता है । वायुकाय में अपर्याप्त अवस्था में यह नहीं होता । पर्याप्त अवस्था होते ही वैक्रिय शरीर की प्राप्ति हो जाती है । धवला में पर्याप्त तेजसकायिक जीवों के भी वैक्रिय शरीर होने का उल्लेख मिलता है । श्वेताम्बर परम्परा में पर्याप्त वायुकाय जीवों के ही वैक्रिय शरीर माना गया है । (भ-2 75)  
नोट: वायुकाय जब वैक्रिय रचना करता है तब वह इस शरीर से विविध प्रकार की गति करने मैं समर्थ है। किन्तु विविध रूप बनाने में समर्थ नहीं।


वैक्रियलब्धिक - नाना प्रकार के रूप निर्माण में समर्थ योगजनित शक्ति से सम्पन्न
वैक्रियसमुद्घात - नाना प्रकार के रूपनिर्माण के लिए होने वाला आत्मप्रदेशो का प्रक्षेपण
गर्भज मनुष्य का वैक्रिय लब्धि प्रयोग व नरकगमन ​
​गौतम ! सब पर्याप्तियों से पर्याप्त, वीर्यलब्धि ओर वैक्रियलब्धि से सम्पन्न, संज्ञी ​पंचेन्द्रिय गर्भगत शिशु शत्रु-सेना का आगमन सुनकर, अवधारण कर अपने आत्म-प्रदेशों का गर्भ से बाहर प्रक्षेपण करता है, उनका प्रक्षेपण कर वैक्रिय समुद्घात से समवहत होता है, समवहत होकर चतुरङिग्णी सेना का निर्माण करता है । निर्माण कर उस चतुरङिग्णी सेना के द्वारा शत्रु-सेना के साथ युद्ध करता है ।
वह जीव (गर्भगतशिशु) अर्थकामी, राज्यकामी, भोगकामी और कामकामी, अर्थकांक्षी, राज्य-कांक्षी, भोगकांक्षी ओर कामकांक्षी तथा अर्थपिपासु, राज्यपिपासु, भोगपिपासु और कामपिपासु होकर उस अर्थ आदि में ही अपने चित्त, मन, लेश्या, अध्यवसाय ओर तीव्र अध्यवसान का नियोजन करता है । वह उसी विषय में उपयुक्त हो जाता है । उसके लिए अपने सारे करणों (इन्द्रियों) का समपर्ण क्र देता है । वह उसके भावना से भावित हो जाता है । उस अंतर (युद्ध काल) में यदि मरणकाल को प्राप्त होता है, तो नैरयिकों में उत्पन्न होता है


आहारक

आहारक शरीर – संशय-निवारण के लिए चतुर्दशपूर्वी प्रमत्त सयंति के द्वारा आहारक लब्धि से निर्मित किया जाने वाला शरीर । (जैपाश 58)

विशिष्ट योगशक्ति सम्पन्न अभिन्नाक्षर चतुर्दश पूर्वधर मुनि  विशिष्ट प्रयोजनवश - यानि ---- अगर 14 पूर्व चितारते हुए कोई शंका हो, अथवा कोई वादी आकर मुनिराज को कोई प्रश्न पूछे , और उसका उत्तर 14 पूर्वों में न हो, अथवा उस समय मुनिराज को उपयोग न लगे अथवा  तीर्थंकर भगवान की ऋद्धि - दर्शन , या नया ज्ञान सीखने का प्रश्न उपस्थित होने पर आहारक लब्धि से सम्पन्न मुनि जघन्य देश न्यून एक हाथ उत्कृष्ट एक हाथ  प्रमाण अति विशुद्ध स्फटिक के समान निर्मल शरीर की संरचना करते हैं ,  उसे आहारक शरीर कहते हैं ।

नोट : क्या ऐसा हो सकता है कि 14 पूर्वो में कोई उत्तर न हो, जैसा कि  ऊपर लिखा हुआ है ?

आहारक शरीर अप्रतिहत गति से गमन करके कई लाख योजन तक सूक्ष्म पदार्थों का आहरण करता है  इसलिए इसका नाम पड़ा आहारक।

यह शरीर केवली भगवान के पास शंका निवारण के लिए अथवा प्रश्न का उत्तर लेने के लिए पहुँचता है और केवली भगवान द्वारा प्रश्न का उत्तर देने पर यहाँ बैठे मुनिराज शंका का समाधान प्राप्त कर लेते हैं तब मुनिराज शंका का समाधान दें देते हैं हैं । यह कार्य केवल अन्तर्मुहूर्त में हो जाता है । सामने बैठे वाले को आभास तक नहीं होता ।
इस शरीर को आहारक  कहते हैं । यह शरीर आहारक पुद्गलों का बना होता है ।
यह शरीर औदारिक और वैक्रिय शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म तथा तैजस और कार्मण की अपेक्षा स्थूल होता है । फिर भी इसकी गति में कोई बाह्य पदार्थ बाधक नहीं बन सकता ।

नोट -- आहारक शरीर का निर्माण सिर्फ 14 पूर्वधारी साधु ही लब्धि द्वारा कर सकते हैं । आहारक को पूरे भव चक्रों में कोई अधिकतम ४ बार ही बना सकता है।

इस लब्धि की प्राप्ति 7 th गुणस्थान में होती है , तथा लब्धि का प्रयोग करते समय गुणस्थान छठा आ जाता है ।
लब्धि फोड़ना भी एक प्रमाद है । इस लब्धि की प्राप्ति सातवें गुणस्थान में है । यह गुणस्थान अप्रमाद का है । अप्रमाद में लब्धि फोड़ने का प्रश्न ही नहीं उठता है । अत: लब्धि फेाड़ते समय ( प्रमाद है ) छठा गुणस्थान आ जाता है ।

श्रावक इसशरीर का निर्माण नहीं कर सकते । श्रावक का गुणस्थान पाँचवा है । केवल साधु ही इसका निर्माण कर सकते हैं और व भी जिन साधुओं को 14 पूर्व के ज्ञान के साथ आहारक - लब्धि क प्राप्त हो ।

नोट -हर 14 पूर्वी साधु को आहारक लब्धि की प्राप्ति नहीं होती ।

प्रश्न हो सकता है कि आहारक लब्धि का  प्रयोग किसी जिज्ञासा का  समाधान हेतु किया गया तब भी क्या प्रमाद कहलायेगा ।  
हाँ क्यों कि लब्धि का प्रयोग प्रमाद है। अब उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति है और जिज्ञासा की पूर्ति है वह अलग विषय है : प्रमाद लब्धि का प्रयोग है लब्धि फोड़ने पर जीव हिंसा होती है ।अत : प्रमाद है ।

तैजस

तैजसशरीर – तैजस परमाणुओं द्वारा निष्पन्न शरीर, जिसके द्वारा दीप्ति, पाचन तथा आभामण्डल का निर्माण होता है और जो तेजोलब्धि का निमित्त बनता है । (जैपाश 132)

इस शरीर की उष्णता से खाये हुये अन्न का पाचन होता है ,
जिस प्रकार कृषक खेत में क्यारियों में अलग - अलग पानी पहुँचाता है , इसी तरह यह शरीर ग्रहण किये हुये आहार को विविध रसादि में परिणत करके अवयव - अवयव में पहुँचाता है ।
कोई - कोई तपस्वी क्रोध से उष्ण - तेजोलेश्या के द्वारा औरों को हानि पहुँचाते हैं  ( जैसे वैश्यानन ऋषि ने क्रोध में आकर गौशालक पर तेजोलब्धि का प्रयोग किया ) । 

तथा प्रसन्न होकर या बचाव के लिए  कोई (जैसे महावीर ने गौशालक पर शीतोलेश्या का ) शीतलतेजोलेश्या के द्वारा लाभ पहुँचाते हैं , वह इसी तैजस् - शरीर के प्रभाव से होता है ।

अर्थात् आहार के पाचन का हेतु तथा उष्ण तेजोलेश्या और शीतल - तेजोलेश्या के निर्गमन का हेतु जो शरीर है , वह तैजस शरीर है । तैजस शरीर ऊर्जा रूप है । पौद्गलिक ऊर्जा के बिना कोई भी कार्य सम्पन्न होना अशक्य है । अतः सांसारिक जिव को तैजस शरीर की अपेक्षा है ।

नोट - प्रत्येक संसारी जीवों के तैजस और कार्मण शरीर ये दो शरीर अवश्य ( नियमा ) होते हैं । कोई भी संसारी प्राणी इन दो शरीरों के बिना संसार में रह नहीं सकता । इन दोनों शरीरों से छूटते ही आत्मा मुक्त हो जाती है ।फिर उसे संसार में परिभ्रमण नहीं करना पड़ता ।

तैजस और कार्मण शरीर अत्यन्त सूक्ष्म है अत : सारे लोक की कोई भी वस्तु उनके प्रवेश को रोक नहीं सकती । 
सूक्ष्म वस्तु बिना रुकावट के सर्वत्रप्रवेश कर सकती है , जैसे - अति कठोर लोह - पिण्ड में अग्नि ।
तैजस्, कार्मण शरीर के अंगोंपांग नहीं होते। इनका सदैव देशबंध होता है, सर्व बंध कभी नहीं। ये दोनों सुख दुख के अनुभव से रहित हैं।
लेश्या का पौद्गलिक स्वरूप   तैजस शरीर है। A kind of energy body. We can call it bioplasma also.

कार्मण

कार्मण शरीर -- कर्म पुद्गलों द्वारा निर्मित शरीर, जो कर्म-समूह का आश्रय बनता है । (जैपाश 90)

कार्मण शरीर हमारा मूल शरीर है । संसार के सभ छोटे बड़े प्राणी इस शरीर से बंधें हैं । 4 गति, 5 जाति, 6 काय या कोईँ भी इसका अपवाद नहीं । प्राणी के संसार भ्रमण का मूल हेतु यह कार्मण शरीर है । मुहावरे की भाषा में - इस शरीर को " काचर का बीज "कहा जाता है । यानि यह सभी शरीरों का बीज है । जिस क्षण यह शरीर क्षीण हो जाता है , उसी क्षण प्राणी संसार से मुक्त हो जाता है ।
औदारिक आदि चारों शरीरों का निमित्त है कार्मण शरीर । कार्मण शरीर का निमित्त है आश्रव ।

प्राणी के विचार , वचन , व्यवहार और शारीरिक क्रियाओं के प्रभाव और संस्कार आत्मा से चिर सम्बन्ध कार्मण - शरीर पर पड़ते हैं । कई बार व्यक्ति का आचरण शुभ और कई बार अशुभ होता है । प्राणी के इन अच्छे - बुरे / शुभ - अशुभ सब कार्यों की खतौनी कार्मण -शरीर  के बही -खाते में अंकित होती रहती है , और नावें ( उधारी ) जमा - राशि के अन्तर के अनुसार वह जीव अपने अगले जन्म की भूमिका तैयार कर लेता है । पुराने शरीर को छोड़कर अपने इसी सूक्ष्म कार्मण शरीर के साथ नवीन उत्पत्ति स्थल पर पहुँचता है ।

कार्मण - शरीर- कार्मण को अगर English में समझा जाये या विस्तार किया जाये तो इसका अर्थ होता है --
कर्म Recorder करने वाला , यानि, यही वह जगह है, यही वह Tap-Recorder है जहाँ हमारा भाग्य लिखा होता है ।
इसमें  हर भव की , हर पल की , हर क्षण की घटनाएँ अर्थात् कर्म Record रहते हैं । पूर्व में Recorded कर्म ही हमारे आगे के भाग्य का निर्माण करते हैं ।

परन्तु यह Recorder इतना क़रीब होते हुए भी इसके Button पर अर्थात स्वीच पर यानि - Play , Forward एवं Rewind पर हमारा नियन्त्रण ( Control )नहीं होता ।

कुछ महापुरुष जैसे - अतीन्द्रिय ज्ञानी , आदि के हाथों  में इस Taprecorder के switches पर control आ जाता है ।
जिससे वे भूत , वर्तमान व भविष्य को साक्षात जान लेते हैं ।

हम भी अगर अरिहन्तों के बताये मार्ग पर चलेंगे तो एक दिन इसका control हमारे हाथ में आ जायेगा और हम भी इस काचर के बीज यानि कार्मण शरीर से सदा के लिए मुक्ति पाकर सिद्ध - बुद्ध - मुक्त हो जायेंगे ।

कार्मण  शरीर  का सम्बन्ध  आठों  कर्म से है। आठों  कर्मो के पुदग्ल-  समुह से जो शरीर  बनता है, वह कार्मण  शरीर  है।
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एक साथ एक संसारी जीव में कम से कम दो शरीर , अधिक से अधिक चार शरीर हो सकते हैं , पाँच कभी नहीं ।

एक साथ दो - तैजस और कार्मण ( अन्तराल गति में )

एक साथ तीन - तैजस , कार्मण और औदारिक ( तिर्यंच व मनुष्य में )
या
तैजस , कार्मण और वैक्रिय ( नारक व देवता में )

एक साथ चार - तैजस , कार्मण , औदारिक और वैक्रिय ।( तिर्यंच व मनुष्य में लब्धिजन्य )
या तैजस , कार्मण , औदारिक और आहारक ।( मुनि की अपेक्षा )

नोट - औदारिक , वैक्रिय और आहारक शरीर के अंगोपांग होते हैं । शेष शरीरों के अंगोपांग नहीं होते ।
सभी शरीर कर्म से स्थूल, सूक्ष्म व सूक्ष्मतर पुद्गलों से बने होते है ।

क्रम.
दण्डक
शरीर संख्या
शरीर नाम
1.
सात नारकी और सर्व देवता
3
वैक्रिय , तैजस , कार्मण
2. 
4 स्थावर , 3 विकलेन्द्रिय ,
असंज्ञी मनुष्य तथा सर्व युगलिया
3
औदारिक , तैजस , कार्मण
3.
वायुकाय , संज्ञी तिर्यंच तथा मनुष्यणी
4
आहारक को छोड़कर
4.
गर्भज मनुष्य
5
सभी

सिद्धों में शरीर नहीं पाता ।

अन्तराल गति में दो शरीर तैजस व कार्मण

लघु दंडक में 24 दंडक के आधार पर शरीर बताये गए है। चार इन्द्रिय के जीवो तक वायुकाय को छोड़कर किसी भी जीव में वेक्रिय शरीर नहीं होता  और आहारक भी नहीं होता ।

दंडक के सिवाय भी एक ही दंडक में अगर अंतर होता है तो उसको अलग से बताया गया है। जेसे योगलिक वेसे तो 21 वे दंडक में आ जात है लेकिन उनकी काफी बाते अलग से दर्शाई जाती है।

सिद्धो की बात भी हर द्वार में बता दी जाती है।

जिज्ञासा

प्र. तेजस शरीर की अपेक्षा क्यों पड़ी। न्यूनतम शरीर 2 होते है तो एक कार्मण से काम चल जाता। तेजस का योग भी नहीं होता।   पाचन का कार्य तो औदारिक भी कर लेता।

उ. आहार के पाचन के हेतु के साथ - साथ तेजोलेश्या व शीतोलेश्या के निर्गमन का हेतु जो शरीर है वह तेजोशरीर ही है । कार्मण व तेजस शरीर दोनों साथ - साथ ही रहते हैं । पाचन का कार्य औदरिक का है ही नहीं । औदरिक शरीर एक vessel की तरह है एवं vessel कभी पचा नहीं सकता । हम जो भी खाते हैं उसे तैजस् शरीर पुन:पचाता है। 
हमारे शरीर को गर्म रखता है। मरने के बाद इसलिए ही शरीर ठंडा हो जाता है।

प्र. स्त्री को केवल ज्ञान हो सकता है। भगवान मल्लिनाथ तीर्थकर थे । फिर स्त्री को आहारक शरीर क्यों नहीं प्राप्त हो सकता । आहारक शरीर के साथ क्या संहनन का संबध रहता है ।

उ. तभी तो यह अच्छेरा ही हुआ था । 14 पूर्वों का ज्ञान ही नहीं होता स्त्रियों को । 14 पूर्वधारी ही आहारक शरीर का निर्माण कर सकते हैं ।  स्त्रियां 14 पूर्वधारी नहीं हो सकती । स्त्री का तीर्थंकर होना अछेरा है । सर्वज्ञता स्त्री पुरुष के लिए सामान्य प्रक्रिया है । सर्वज्ञता कोई लब्धि नही है । आहारक शरीर एक लब्धि है । सम्भवतः लब्धि फोड़ने के लिए जो विश्शेष पराक्रम चाहिए वह स्त्री शरीर द्वारा सम्भव न हो । सर्वज्ञता के लिए आंतरिक और बाह्य विशुद्धि का अधिक महत्त्व है । लब्धि फोड़ना एक रागातमक प्रवृत्ति है ।
सर्वज्ञता ज्ञानावरण का क्षायिक भाव है,क्षय जन्य अवस्था मैं तरतमता नहीं होती, लेकिन क्षयोपशम सबका समान नहीं होता। उसमें category होती है। पुर्वों के ज्ञान के लिये जिस category में ढलना आवश्यक है स्त्री का शरीर वह नहीं कर पाता। physical differences are scientific also.

जैसे बिना अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम किये बिना भी जीव केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है यानि अवधिज्ञान प्रकट हुये बिना भी केवलज्ञान प्राप्त हो सकता है । (अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम करने लायक इनके अध्यवसाय नहीं होते हैं ।)
उसीप्रकार स्त्रियों के अध्यवसाय श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का तीव्र क्षयोपशम करने में असमर्थ होती हैं । ( 14 पूर्वधरों के श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का तीव्र क्षयोपशम होता है )किन्तु केवलज्ञानावरणीय कर्म का क्षय कर लेती हैं । केवलज्ञान तो भावों की निर्मलता से प्रकट हो जाता है ।

नोट: छठे गुणस्थान में पांच शरीर होते है। किन्तु उपयोग चार का ही होता है। उपयोग वेक्रिय और आहारक में एक का हो सकता है ।
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संघात अर्थात ग्रहण एवं परिशाट अर्थात परित्याग ।   पूर्वभविक औदरिक आदि शरीर के पुद्गलो को छोड़कर अग्रिम भव में पुन: पुद्गलो का संग्रहण संघातकरण कहलाता है अथवा शरीर योग्य पुद्ग्लाओ का प्रथम ग्रहण संघात है । औदरिक शरीरों को छोड़ते समय अंत में उनका सर्वथा परित्याग करना परिशाट है । संघात और परिशाट का कालमान एक-एक समय है । इन दोनों के मध्य 'संघात-परिशाट' यह उभयकरण होता है ।

औदरिक, वैक्रिय और आहारक इन शरीरों के संघात आदि तीनों करण होते है । तैजस और कार्मण शरीर प्रवाहरूप से अनादि है अत: इनका संघातकरण नहीं होता । भव्य जीव जो मोक्ष जाते हैं उनकी अपेक्षा से तैजस और कार्मण का परिशाट होता है । मुक्तिगामी भव्यों के शैलाशी अवस्था के चरम समय में तैजस एवं कार्मण शरीर का परिशाट होता है ।
संघात, परिशाट एवं संघात-परिशाट ये तीनों जीव प्रयोगकरण हैं । अभव्य जीवों में तैजस एवं कार्मण शरीर का संघात एवं परिशाट - ये दोनों ही नहीं होते है । संघात-परिशाट रूप उभयकरण उनमें होता है । यह करण भी अभव्य जीवों की अपेक्षा अनादि अनंत है और सिद्धिगमन करने वाले भव्यों की उपेक्षा सांत है ।      

आध्यात्मिक पहलू

1. हम शरीर को बहुत over-payment करते है ओर return में ज्यादा लेते नहीं है । From now onwards we shall negotiate with this body in tough manner. इसका खाना, पीना, सोना सब नियिमत कर दे और इससे ज्यादा से ज्यादा काम ले, तभी अच्छे व्यपारी कहलायेगें ।

​2. ​भगवान् महावीर से पूछा गया - आप ने अपने साधना काल में अपने शरीर को कष्ट दिया । तो भगवान् ने बताया कि मैं तो किसी कष्ट दे ही नहीं सकता । मैंने अपने शरीर को भी कभी कष्ट नहीं दिया । रोगी को रोग हो कडवी दवा ही पीता है । उसको कष्ट नहीं कहा जाता । इसी तरह कर्म जो आत्मा के साथ है वो रोग है । और जो शरीर से तपस्या हो रही है वो कडवी दवा है । अगर कर्ममुक्त होना है तो तपस्या आवश्यक है ।

3. शरीर से भिन्नता उतपन्न करे । हमने सिर्फ अपने शरीर को अपना मान रखा है । हमने कई और शरीरों को भी अपना मान रखा है । एक रूपक के द्वारा समझाया है कि अगर मृत्यु हो जाये और विकल्प रखा जाए कि मृत शरीर जिन्दा हो सकता है अगर कोई ओर परिवार का सदस्य इसकी जगह चला जाए, तो सब गली निकाल लेते है और पीछे हट जाते है । तो मेरा शरीर भी मेरा नहीं है ओर दूसरों के शरीर भी मेरे नहीं है ।

4. मोक्ष जाने के लिए औदरिक शरीर आवश्यक । और ये ही शरीर सातवें नरक तक ले जा सकता है । हमें निर्णय करना है हम इसका कैसे उपयोग करते है ।

5. हमें कर्म - शरीर को कृश करना है - त्याग - तपस्या व संयम के द्वारा ।इसके अलावा समता व भावना का बहुत बड़ा हाथ है - कार्मण -शरीर  के कृश करने में । कहा भी गया है -
"
भाव - शुद्धि 
भव -शुद्धि "

6. भगवान् ने कहा है कि दुर्बल शरीर वाला व्यक्ति भी भोग का परित्याग कर महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला हो सकता है । (भ 7/149)  









शरीर नाम – नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव औदारिक शरीर आदि के प्रायोग्य पुद्गलों को ग्रहण कर औदारिक शरीर आदि के रूप में उन्हें परिणत कर आत्मप्रदेशों के साथ उनका परस्पर सम्बन्ध कर देता है (जैपाश 280)

शरीर परिग्रह – शरीर के प्रति होने वाला ममत्व (जैपाश 280)

शरीरपर्याप्ति – छह पर्याप्तियों में दूसरी पर्याप्ति । शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्जन करने वाली पौद्गलिक शक्ति की सरंचना । (जैपाश 281)

शरीरबकुश – बकुश निर्ग्रन्थ का एक प्रकार । वह मुनि, जो पैर, नख, मुंह आदि शरीर के अवयवों की विभूषा में प्रवृत रहता है । (जैपाश 281)

शरीरबन्धननाम – नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से औदरिक शरीर वर्गणा के गृहीत और गृह्यमाण पुद्गलो का परस्पर तथा तैजस और कार्मण के पुद्गलों के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है । (जैपाश 281)     

शरीरसंघातनाम – नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीरवर्गणा के गृहीत और गृह्यमाण पुद्गलों की शरीररचना के अनुरूप व्यवस्था होती है । (जैपाश 281)

शरीरसम्पदा – गणिसम्पदा का एक प्रकार । लम्बाई, चौड़ाई तथा परिपूर्ण इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला शारीरक वैभव । (जैपाश 281)           

शरीरङगो्पाङग्नाम – नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीर के अंग – सिर, छाती, उदर, पीठ, दो भुजाएं, दो ऊरू और उपांग – अंगुली आदि की रचना होती है । (जैपाश 281)            

औदारिक अस्वध्याय – अस्थि, मांस आदि के परिपार्श्व में तथा चन्द्रग्रहण आदि के समय आगम स्वाध्याय का निषेध । (जैपाश 79)

औदारिककाययोग – औदरिक शरीर वाले मनुष्य और तिर्यंच गति के जीवों की हलन-चलन रूप प्रवृति । (जैपाश 79)

औदारिकशरीरमिश्रकायप्रयोग – औदारिक काययोग का कार्मण, वैक्रिय अथवा आहारक काययोग के साथ होने वाला मिश्रण, जो चार प्रकार से हो सकता है । (जैपाश 79)

औदारिकवर्गणा – वह पुद्गल-समूह, जो औदारिक शरीर के निर्माण के योग्य है । (जैपाश 80)         

औदारिकशरीरबन्धननाम – नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से गृहीत और गृह्यमाण औदारिक शरीर के पुद्गलों का परस्पर तथा तैजस और कार्मण के पुद्गलों के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है । (जैपाश 80) 

वैक्रियकाययोग – वैक्रियशरीरवर्गणा के आलम्बन से होने वाली जीव की शारीरक शक्ति और प्रवृत्ति । (जैपाश 273)

वैक्रियशरीरमिश्रकायप्रयोग – वैक्रियकाययोग का कार्मणकाययोग और औदारिककाययोग के साथ होने वाला मिश्रण । (जैपाश 273)

वैक्रियलब्धि – नाना प्रकार के रूपनिर्माण में समर्थ योगजनित शक्ति । (जैपाश 273)

वैक्रियवर्गणा – वैक्रिय शरीर के प्रायोग्य पुद्गल-समूह । (जैपाश 273)

वैक्रियशरीरबन्धननाम – नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से गृहीत और गृह्यमाण वैक्रिय शरीर के पुद्गलों का परस्पर तथा तैजस और कार्मण शरीर के पुद्गलों के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है । (जैपाश 273)

वैक्रिय समुद्घात – समुद्घात का एक प्रकार । विक्रिया करने के लिए आत्म-प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालना । (जैपाश 273)
आहारक – 1. औदारिक आदि किसी भी वर्गंणा के पुद्गलों को ग्रहण करने वाला । 2. शरीर को पोषण देने वाले पदार्थों को ग्रहण करने वाला । (जैपाश 58)

आहारककाययोग – आहारक शरीर द्वारा की जाने वाली प्रवृत्ति । (जैपाश 58)

आहारकमिश्रशरीरकाययोग – जब आहारक शरीर अपना कार्य सम्पन्न कर औदारिक शरीर में प्रवेश करता है, उस समय औदारिक के साथ आहारकमिश्रशरीरकाययोग होता है । (जैपाश 58)

आहारकलब्धि – विशिष्ट लब्धि, जिसके द्वारा श्रुतकेवली विशिष्ट प्रयोजन उत्पन्न होने पर आहारक शरीर का निर्माण करते है । (जैपाश 58)  

आहारकवर्गणा – आहारक शरीर के प्रायोग्य पुद्गल-समूह । (जैपाश 58)

आहारकशरीरबन्धननाम - नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से गृहीत और गृह्यमाण आहारक शरीर के पुद्गलों का परस्पर तथा तैजस तथा कार्मण शरीर के पुद्गलों के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है । (जैपाश 59)      

आहारकसमुद्घात – आहारक शरीर के निर्माण और सम्प्रेषण के समय आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालना । यह 

आहारकसमुद्घात शरीरनामकर्म के आश्रित होता है । (जैपाश 59)  

तेजोलब्धि – तैजस शरीर का विकास करने पर उत्पन्न होने वाली तैजस शक्ति । इसके द्वारा शाप व अनुग्रह दोनों किए जा सकते है । (जैपाश 131)

तैजसवर्गणा – तैजस शरीर के प्रायोग्य पुद्गल समूह । (जैपाश 132)

तैजसशरीरबन्धननाम - नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से गृहीत और गृह्यमाण तैजस शरीर के पुद्गलों का परस्पर तथा कार्मण शरीर के पुद्गलों के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है । (जैपाश 132)       
तैजससमुद्घात – तैजस शरीर का विसर्पण करना । इसका प्रयोजन है अनुग्रह व निग्रह । यह तैजस नामकर्म के आश्रित होता है । (जैपाश 132)

कर्मशरीरबन्धननाम - नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से गृहीत और गृह्यमाण कर्मपुद्गलों का परस्पर सम्बन्ध स्थापित होता है । (जैपाश 83)

कर्मवर्गणा – अष्टविध कर्मस्कन्ध  कर्मशरीर के प्रायोग्य पुद्गल समूह । (जैपाश 84)

कार्मणशरीरकायप्रयोग – अन्तराल गति में जीव जब अनाहारक होता है, उस समय कार्मण काययोग होता है । केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे व पांचवे समय में कार्मणकाययोग होता है । (जैपाश 90)