आदरणीय डा. मंजू जी नाहटा के द्वारा:
निक्षेप
निक्षेप क्या है?
निक्षेप का अर्थ है- प्रस्तुत अर्थ का बोध देने वाली शब्द संरचना ।
प्रकारांतर में निक्षेप को इस प्रकार भी परिभाषित किया जा सकता है- 'प्रस्तुतार्थबोधाय अर्हदादिशब्दानां निधानं निक्षेप:' ।
प्रासंगिक अर्थ का बोध कराने के लिए अर्हत् आदि
शब्दों का नाम,स्थापना,आदि भेदों के
द्वारा न्यास करना निक्षेप कहलाता है । यहाँ अर्हत् शब्द लेकर हम पाठ के अंत में ४
निक्षेप घटाएगें।
इसके द्वारा अर्थ का प्रयोग में आरोपण कर
इच्छित अर्थ का बोध किया जाता है।
निक्षेप का कार्य है भाव और भाषा में सम्बन्ध
बैठाना। ऐसा हुए बिना ना तो अर्थ का बोध हो सकता है और ना ही अप्रासंगिक अर्थों का
परिहार किया जा सकता है । संक्षेप में यह माना जा सकता है की किसी भी अर्थ के सूचक
शब्द के पीछे उसके अर्थ की स्थिति को स्पष्ट करने वाले विशेषण का प्रयोग निक्षेप
है। उसके द्वारा व्यक्ति या वस्तु के बारे में दिमाग में स्पष्ट रेखा चित्र बन
जाता है और उसे उस व्यक्ति या वस्तु की पहचान करने या कराने में सुविधा हो जाती है
। सामान्यत: हर शब्द अनेकार्थ होता है। उसके कुछ अर्थ प्रासंगिक होते हैं और कुछ
अप्रासंगिक । प्रासंगिक अर्थ का ग्रहण और अप्रासंगिक अर्थों का परिहार करने के लिए
व्यक्ति सब अर्थों को अपने दिमाग में स्थापित
करता है। ऐसा किये बिना कोई भी शब्द अपने प्रयोजन को पूरा नहीं कर सकता ।
जिस शब्द के जितने अर्थो का ज्ञान होता है, उतने ही निक्षेप
हो सकते हैं। पर संक्षेप में उनका वर्गीकरण किये जाये तो निक्षेप के चार प्रकार
हैं -
१/.नाम
२/. स्थापना
३/. द्रव्य
४/. भाव
सामान्यत: हर शब्द अनेकार्थ होता है। उसके कुछ अर्थ प्रासंगिक होते हैं और कुछ अप्रासंगिक । प्रासंगिक अर्थ का ग्रहण और अप्रासंगिक अर्थो का परिहार करने के लिए व्यक्ति सब अर्थो को अपने दिमाग में स्थापित करता है । ऐसा किये बिना कोई भी शब्द अपने प्रयोजन को पूरा नहीं कर सकता । जिस शब्द के जितने अर्थो का ज्ञान होता है, उतने ही निक्षेप हो सकते हैं। पर संक्षेप में उनका वर्गीकरण किये जाये तो निक्षेप के चार प्रकार है~नाम,स्थापना,द्रव्य,और भाव।
निक्षेप के अभाव में अर्थ का अनर्थ भी हो जाता
है। शब्द ही एक माध्यम है , जिससे हम किसी वस्तु की पहचान कर सकते
हैं।अर्थ और शब्द परस्पर वाच्य- वाचक भाव सम्बन्ध रखतें हैं । इससे हमारा व्यवहार
चलता है। अकेले व्यक्ति को कोई व्यवहार निर्वाह नहीं करना है। किन्तु जब हम समूह
में जिएंगें तो सापेक्ष होकर ही जीना पड़ेगा और व्यवहार चलाने के लिए किसी संकेत
पद्धति का विकास करना होगा। संकेत काल में जिस वस्तु को समझने या समझाने के लिए
जिस शब्द को गढ़ा जाता है, वह उसी अर्थ का प्रतिनिधित्व करता रहे,
तब
तक तो काम चलता रहता है। किन्तु आगे चलकर उसके अर्थ का विस्तार हो जाता है। दूसरे
शब्दों में, एक शब्द के अनेक अर्थ भी होते हैं। वस्तु का
सम्यक् अवबोध प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम उस वस्तु का नाम, स्थापना,
द्रव्य
एवं भाषा रूप में निक्षेपण स्थापना की जाती है ।
मनुष्य ज्ञाता है, और पदार्थ ज्ञेय
है। हमारा ज्ञान परोक्ष है। किसी भी वस्तु को सर्वात्मना साक्षात् नहीं जान सकते।
अत: हमें किसी माध्यम की आवश्यकता है। माध्यम के दो प्रमुख तत्व हैं, नाम
और रूप।
सामान्यतया निक्षेप के चार प्रकार हैं - नाम,
स्थापना,
द्रव्य,
भाव।
अनुयोगद्वार, षट्खण्डागम में- नाम, स्थापना,
द्रव्य,
क्षेत्र,
काल,
भाव
–इन छह का निर्देश भी किया गया। और हम इनसे अधिक निक्षेप भी कर सकते
हैं। उसका उदाहरण जब आप सब भेदों को पढ़ चुके होंगें तब मैं अंत में दूँगी as a conclusive part.
अभी जानें -
निक्षेप के चार प्रकार हैं।
1 नाम
2
स्थापना
3
द्रव्य
4 भाव
1) नाम निक्षेप- शब्द की मूल अपेक्षा किये बिना ही
किसी वस्तु का इच्छानुसार नाम करण करना नाम निक्षेप है । इसमें जाति, द्रव्य,
गुण,
क्रिया,
लक्षण
आदि निमित्तों की अपेक्षा नहीं की जाती, जैसे- किसी अनक्षर व्यक्ति का नाम 'उपाध्याय'
रखना।
मात्र संकेत के आधार पर संज्ञाकरण करना नाम
निक्षेप कहलाता है। पर्यायवाची शब्द नाम निक्षेप में कार्यकारी नहीं होते। जैसे-
बालक का नाम अनिल है, उसे कभी हवा पुकारें, कभी समीर,
कभी
पवन आदि। ऐसा कभी नहीं होता है। नाम निक्षेप में मूल अर्थ की अपेक्षा नहीं रहती,
भिखारी
का नाम भी लक्ष्मीपति हो सकता है।
2) स्थापना निक्षेप- मूल अर्थ से शून्य वस्तु को
उसी के अभिप्राय से स्थापित करना जैसे- किसी प्रतिमा में उपाध्याय की स्थापना करना
।
जो अर्थ तद्रूप (तत रूप) नहीं है उसे तद्रूप
मान लेना स्थापना निक्षेप है। (किसी प्रतिमा में उपाध्याय की स्थापना करना) यह दो
प्रकार से होती है।
१. सद्भाव (तदाकार स्थापना)- व्यक्ति अपने गुरू
के चित्र को गुरू मानता है।
२. असद्भाव (अतदाकार स्थापना)- एक व्यक्ति ने
शंख में अपने गुरू का आरोप कर दिया।
उपरोक्त दोनों में अभेद-
) नाम और स्थापना दोनों वास्तविक अर्थशून्य होते
हैं।
उपरोक्त दोनों में भेद-
क) नाम यावत्कथित अर्थात् जीवनपर्यन्त रहता है
जबकि स्थापना यावत्कथित भी हो सकती है और अल्पकालिक भी।
ख) नाम मात्र के धारक महावीर को देखकर लोग
नतमस्तक नीं होते, लौकिक स्थापना में होते हैं।
आज के लिए इतना ही कारण कर्म ग्रंथ के प्रश्नों
के उत्तर भी लिखने हैं।
_________________________________________________________________________________
हमने दो निक्षेप जानें अब शेष दो की चर्चा करेंगें।
हमने दो निक्षेप जानें अब शेष दो की चर्चा करेंगें।
3) द्रव्य निक्षेप- जैन धर्म दर्शन के अनुसार जड़
और चेतन सभी द्रव्यों का त्रैकालिक अस्तित्व है। वर्तमान काल अतीत और अनागत दोनों
से संबद्ध रहता है। द्रव्य निक्षेप व्यक्ति अथवा वस्तु की अतीत और अनागतकालीन
पर्यायों को ग्रहण करता है। द्रव्य
निक्षेप के स्वरूप से जुड़ा एक पक्ष और है तथा वह है-अनुपयोग। ज्ञाता की अनुपयुक्त
अवस्था भी द्रव्य निक्षेप कहलाती है। भविष्य में जो राजा बनेगा अथवा राज्य संचालन
के दायित्व से जो मुक्त हो गया। दोनों ही राजा के संबोधन से संबोधित किए जाते हैं।
भूत और भावी अवस्था के कारण व्यक्ति या वस्तु की उस अभिप्राय से पहचान करना द्रव्य
निक्षेप है, जैसे - जो व्यक्ति पहले उपाध्याय रह चुका अथवा
भविष्य में उपाध्याय बनने वाला है, उस व्यक्ति को वर्तमान में उपाध्याय
कहना।
उपयोग शून्यता की अवस्था में भी द्रव्य निक्षेप
का प्रयोग होता है, जैसे~ अध्यापन कार्य में प्रवृत होने पर भी
अध्यवसाय-शून्यता की स्थिति में अध्यापक 'द्रव्य अध्यापक' है । इसके तीन
रूप बनते हैं।
1. आगमत द्रव्य निक्षेप :- उपयोगरूप आगमज्ञान नहीं
होता, लब्धि रूप होता है। कोई व्यक्ति जीव विषयक अथवा अन्य किसी वस्तु का
ज्ञाता है किन्तु वर्तमान में उस उपयोग से रहित है उसे आगमत: द्रव्य निक्षेप कहा
जाता है। ज्ञाता है, ज्ञान है (लब्धि है), उपयोग नहीं।
(No more teacher but is called teacher)
2. नो आगमत: द्रव्य निक्षेप :- ज्ञान नहीं होता।
सिर्फ आगम ज्ञान का कारणभूत शरीर होता है- न उपयोग, न लब्धि,
न
मूल ज्ञान। आगम द्रव्य की आत्मा का उसके शरीर में आरोप करके उस जीव के शरीर को ही
ज्ञाता कहना....न उपयोग, न मूल ज्ञान, न ही लब्धि।
(अध्यापन कार्य में प्रवृत्त होने पर भी
अध्यवसाय शून्यता effortless)
नोआगमत: के तीन भेद हैं-
A) ज्ञ शरीर:- आवश्यक सूत्र के ज्ञाता की मृत्यु
हो जाने पर भी उसे ज्ञाता कहना।
B) भव्य शरीर:- जन्मजात बच्चे को कहना यह आवश्यक
सूत्र का ज्ञाता है। वर्तमान में आवश्यक के बोध से शून्य है। भविष्य में ज्ञान
करने वाली आत्मा (future, no present).
C) तद्व्यतिरिक्त:- (द्रव्य निक्षेप का कार्य सबसे
अधिक व्यापक है) वस्त्र के कर्त्ता या वस्त्र निर्माण की सामग्री को वस्त्र कहना।
वस्तु की उपकारक सामग्री में वस्तुवाची शब्द का व्यवहार किया जाता है। अध्यापन के
समय हस्त संकेत आदि क्रिया को अध्यापक कहना। अध्यापक के शरीर को अध्यापक कहना
अध्यापक का अर्थ जानने वाले व्यक्ति का शरीर अपेक्षित है।
।
3. नो आगम तद्व्यतिरिक्त द्रव्य निक्षेप - आगम का
सर्वथा अभाव होता है। यह क्रिया की अपेक्षा द्रव्य है, इसके तीन रूप
बनते हैं।
A) लौकिक- दूब आदि मंगल है। लोकमान्यतानुसार दूब
आदिमंगल है।
B) कुप्रावचनिक- मान्यतानुसार विनायक मंगल है।
C) लोकोत्तर- मान्यतानुसार ज्ञान, दर्शन,
चारित्र,
तप
आदि धर्म मंगल है।
4) भाव निक्षेप- जिस व्यक्ति या वस्तु का जो
स्वरूप है,वर्तमान में वह उसी स्वरूप को प्राप्त है, अर्थात् उसी
पर्याय में परिणत है, वह भाव निक्षेप है। इसमें किसी प्रकार का उपचार
नहीं होता । इसीलिए वह वास्तविक निक्षेप है; जबकि द्रव्य
निक्षेप में पूर्वोत्तर दशा होती है। स्वर्ग में देवों को देव कहना यह वास्तविक
निक्षेप है। जैसे- अध्यापन की क्रिया में प्रवृत्त व्यक्ति को ही अध्यापक कहना।
अध्यापक की भाँति ही अर्हत् शब्द के भी निक्षेप
किये जा सकते है –
1. नाम अर्हत्- अर्हत् कुमार नाम का व्यक्ति।
2. स्थापना अर्हत्- अर्हत् की प्रतिमा ।
3. द्रव्य अर्हत्- जो अतीत में तीर्थंकर हो चुके
तथा भविष्य में होने वाले हैं।
4. भाव अर्हत्- जो केवलज्ञान उपलब्ध कर चतुर्विध
धर्मसंघ की स्थापना करने वाले तीर्थंकर।
A) आगमत: भाव निक्षेप :- (ज्ञान + उपयोग दोनों)
उपाध्याय का अर्थ जानने वाला तथा उस अनुभव में परिणत व्यक्ति को आगमत: भाव
उपाध्याय कहते हैं। उपाध्याय शब्द के अर्थ में उपयुक्त आगमत: भाव निक्षेप।
B) नो आगमत: भाव निक्षेप:- उपाध्याय के अर्थ को
जानने वाला तथा अध्यापन क्रिया (ज्ञान + क्रिया दोनों) में प्रवृत्त भाव निक्षेप
(भाव उपाध्याय) नो आगमत: भाव निक्षेप कहा
जाता है।
_________________________________________________________________________________
हमने अब तक ४-६ प्रकार के निक्षेप पढ़े लेकिन
यहाँ एक प्रयोग से हम ४-६ ही नहीं अपितु अनेक प्रकार से 'उत्तर'शब्द
के निक्षेप करके समझेंगें।
उत्तर शब्द के निक्षेप -
१५ प्रकार के निक्षेपों के माध्यम से उत्तर
शब्द का न्यास ।
१. नाम उत्तर- किसी का नामकरण - स्वामी
उत्तरसिंह
२. स्थापना उत्तर- मूर्ति आदि में स्वामी
उत्तरसिंह की स्थापना ।
३. द्रव्य उत्तर –
A. आगमत: - उत्तर शब्द का ज्ञाता किन्तु अनुपयुक्त
B. नो आगमत: - जिसने अतीत में उत्तर शब्द को जाना
उसका शरीर।
1. भव्य शरीर - अनागत में उत्तर शब्द को जानेगा ।
(C) तद्व्यतिरिक्त के तीन भेद –
1. सचित - पिता के उत्तर में पुत्र
2. अचित - दूध का उत्तरवर्ती दही
3. मिश्र - माँ के शरीर से उत्पन्न रोम आदि युक्त
संतान ।
४. क्षेत्र उत्तर - मेरू आदि की अपेक्षा उत्तर
में स्थित उत्तर कुरु ।
५. दिशा उत्तर - उत्तर दिशा ।
६. क्षेत्र उत्तर - सबके उत्तर में है मन्दराचल
।
७. प्रज्ञापक उत्तर - प्रज्ञापक के बाएँ भाग
में स्थित व्यक्ति ।
८. प्रति उत्तर - एक दिशा में स्थित देवदत और
यज्ञदत में देवदत से परे यज्ञदत उत्तर ।
९. काल उत्तर - समय के उत्तर में आवलिका ।
१०. संचय उत्तर - धान्य राशि के ऊपर काष्ठ ।
११. प्रधान उत्तर -
क -सचित
(A) द्विपद में उत्तर - तीर्थंकर
(B ) चतुष्पदों में उत्तर सिंह।
(C) अपद में उत्तर जंबू वृक्ष ।
ख- अचित्त - चिन्तामणि ।
ग - मिश्र - गृहस्थ अवस्था में अंलकार युक्त
तीर्थंकर ।
१२. ज्ञान उत्तर - निरावरणता के कारण केवलज्ञान
अथवा स्वपरप्रकाशत्व के कारण श्रुतज्ञान।
१३. क्रम उत्तर –
द्रव्यत: एक परमाणु से उत्तर है, द्विप्रदेशीस्कन्ध,
त्रिप्रदेशी
स्कन्ध, अनन्तप्रदेशी स्कन्ध ।
क्षेत्रत: एक प्रदेश में अवगाह तीन, चार
असंख्य प्रदेशावगाह ।
कालत: एक समय की स्थिति के उत्तर में है,
दो
समय की स्थिति असंख्य समय की स्थिति ।
भावतः एक गुण कृष्ण के उत्तर में, दो
गुण कृष्ण, तीन गुण कृष्ण
१४. गणना उत्तर- एक के उत्तर में दो, दो
के उत्तर में तीन... शीर्षप्रहेलिका।
१५. भाव उत्तर- औदायिक आदि पांच भावों में
क्षायिक भाव उत्तर है।
निष्कर्ष:
हम अनेक प्रकार से निक्षेप कर सकते हैं।वस्तु
सत्य यह है कि हम निक्षेप से ही प्रत्येक शब्द के सही प्रयोजन तक पहुंच कर व्यवहार
चलाते हैं।
बहुत अच्छा समझाया है।यह गूढ़ विषय है।
ReplyDeleteनिक्षेप और प्रमाण/नय में क्या अंतर है
ReplyDelete9811156125