Wednesday 14 September 2016

निक्षेप

आदरणीय डा. मंजू जी नाहटा के द्वारा: 

निक्षेप

निक्षेप क्या है
?

निक्षेप का अर्थ है- प्रस्तुत अर्थ का बोध देने वाली शब्द संरचना ।

प्रकारांतर में निक्षेप को इस प्रकार भी परिभाषित किया जा सकता है-
'प्रस्तुतार्थबोधाय अर्हदादिशब्दानां निधानं निक्षेप:'
प्रासंगिक अर्थ का बोध कराने के लिए अर्हत् आदि शब्दों का नाम,स्थापना,आदि भेदों के द्वारा न्यास करना निक्षेप कहलाता है । यहाँ अर्हत् शब्द लेकर हम पाठ के अंत में ४ निक्षेप घटाएगें। 

इसके द्वारा अर्थ का प्रयोग में आरोपण कर इच्छित अर्थ का बोध किया जाता है।

निक्षेप का कार्य है भाव और भाषा में सम्बन्ध बैठाना। ऐसा हुए बिना ना तो अर्थ का बोध हो सकता है और ना ही अप्रासंगिक अर्थों का परिहार किया जा सकता है । संक्षेप में यह माना जा सकता है की किसी भी अर्थ के सूचक शब्द के पीछे उसके अर्थ की स्थिति को स्पष्ट करने वाले विशेषण का प्रयोग निक्षेप है। उसके द्वारा व्यक्ति या वस्तु के बारे में दिमाग में स्पष्ट रेखा चित्र बन जाता है और उसे उस व्यक्ति या वस्तु की पहचान करने या कराने में सुविधा हो जाती है । सामान्यत: हर शब्द अनेकार्थ होता है। उसके कुछ अर्थ प्रासंगिक होते हैं और कुछ अप्रासंगिक । प्रासंगिक अर्थ का ग्रहण और अप्रासंगिक अर्थों का परिहार करने के लिए व्यक्ति सब अर्थों को अपने दिमाग में स्थापित  करता है। ऐसा किये बिना कोई भी शब्द अपने प्रयोजन को पूरा नहीं कर सकता । जिस शब्द के जितने अर्थो का ज्ञान होता है, उतने ही निक्षेप हो सकते हैं। पर संक्षेप में उनका वर्गीकरण किये जाये तो निक्षेप के चार प्रकार हैं -

१/.नाम
२/. स्थापना
३/. द्रव्य
४/. भाव

सामान्यत: हर शब्द अनेकार्थ होता है। उसके कुछ अर्थ प्रासंगिक होते हैं और कुछ अप्रासंगिक । प्रासंगिक अर्थ का ग्रहण और अप्रासंगिक अर्थो का परिहार करने के लिए व्यक्ति सब अर्थो को अपने दिमाग में स्थापित  करता है । ऐसा किये बिना कोई भी शब्द अपने प्रयोजन को पूरा नहीं कर सकता । जिस शब्द के जितने अर्थो का ज्ञान होता है
, उतने ही निक्षेप हो सकते हैं। पर संक्षेप में उनका वर्गीकरण किये जाये तो निक्षेप के चार प्रकार है~नाम,स्थापना,द्रव्य,और भाव।

निक्षेप के अभाव में अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है। शब्द ही एक माध्यम है , जिससे हम किसी वस्तु की पहचान कर सकते हैं।अर्थ और शब्द परस्पर वाच्य- वाचक भाव सम्बन्ध रखतें हैं । इससे हमारा व्यवहार चलता है। अकेले व्यक्ति को कोई व्यवहार निर्वाह नहीं करना है। किन्तु जब हम समूह में जिएंगें तो सापेक्ष होकर ही जीना पड़ेगा और व्यवहार चलाने के लिए किसी संकेत पद्धति का विकास करना होगा। संकेत काल में जिस वस्तु को समझने या समझाने के लिए जिस शब्द को गढ़ा जाता है, वह उसी अर्थ का प्रतिनिधित्व करता रहे, तब तक तो काम चलता रहता है। किन्तु आगे चलकर उसके अर्थ का विस्तार हो जाता है। दूसरे शब्दों में, एक शब्द के अनेक अर्थ भी होते हैं। वस्तु का सम्यक् अवबोध प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम उस वस्तु का नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाषा रूप में निक्षेपण स्थापना की जाती है ।

मनुष्य ज्ञाता है, और पदार्थ ज्ञेय है। हमारा ज्ञान परोक्ष है। किसी भी वस्तु को सर्वात्मना साक्षात् नहीं जान सकते। अत: हमें किसी माध्यम की आवश्यकता है। माध्यम के दो प्रमुख तत्व हैं, नाम और रूप।

सामान्यतया निक्षेप के चार प्रकार हैं - नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव। अनुयोगद्वार, षट्खण्डागम में- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव इन छह का निर्देश भी किया गया। और हम इनसे अधिक निक्षेप भी कर सकते हैं। उसका उदाहरण जब आप सब भेदों को पढ़ चुके होंगें तब मैं अंत में दूँगी  as a conclusive part.

अभी जानें -

निक्षेप के चार प्रकार हैं।
1  नाम
2  स्थापना
3  द्रव्य
4  भाव

1) नाम निक्षेप- शब्द की मूल अपेक्षा किये बिना ही किसी वस्तु का इच्छानुसार नाम करण करना नाम निक्षेप है । इसमें जाति, द्रव्य, गुण, क्रिया, लक्षण आदि निमित्तों की अपेक्षा नहीं की जाती, जैसे- किसी अनक्षर व्यक्ति का नाम 'उपाध्याय' रखना।

मात्र संकेत के आधार पर संज्ञाकरण करना नाम निक्षेप कहलाता है। पर्यायवाची शब्द नाम निक्षेप में कार्यकारी नहीं होते। जैसे- बालक का नाम अनिल है, उसे कभी हवा पुकारें, कभी समीर, कभी पवन आदि। ऐसा कभी नहीं होता है। नाम निक्षेप में मूल अर्थ की अपेक्षा नहीं रहती, भिखारी का नाम भी लक्ष्मीपति हो सकता है।

2) स्थापना निक्षेप- मूल अर्थ से शून्य वस्तु को उसी के अभिप्राय से स्थापित करना जैसे- किसी प्रतिमा में उपाध्याय की स्थापना करना ।

जो अर्थ तद्रूप (तत रूप) नहीं है उसे तद्रूप मान लेना स्थापना निक्षेप है। (किसी प्रतिमा में उपाध्याय की स्थापना करना) यह दो प्रकार से होती है।

१. सद्भाव (तदाकार स्थापना)- व्यक्ति अपने गुरू के चित्र को गुरू मानता है।
२. असद्भाव (अतदाकार स्थापना)- एक व्यक्ति ने शंख में अपने गुरू का आरोप कर दिया।

उपरोक्त दोनों में अभेद-

) नाम और स्थापना दोनों वास्तविक अर्थशून्य होते हैं।

उपरोक्त दोनों में भेद-

क) नाम यावत्कथित अर्थात् जीवनपर्यन्त रहता है जबकि स्थापना यावत्कथित भी हो सकती है और अल्पकालिक भी।
ख) नाम मात्र के धारक महावीर को देखकर लोग नतमस्तक नीं होते, लौकिक स्थापना में होते हैं।

आज के लिए इतना ही कारण कर्म ग्रंथ के प्रश्नों के उत्तर भी लिखने हैं।
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हमने दो निक्षेप जानें अब शेष दो की चर्चा करेंगें।

3) द्रव्य निक्षेप- जैन धर्म दर्शन के अनुसार जड़ और चेतन सभी द्रव्यों का त्रैकालिक अस्तित्व है। वर्तमान काल अतीत और अनागत दोनों से संबद्ध रहता है। द्रव्य निक्षेप व्यक्ति अथवा वस्तु की अतीत और अनागतकालीन पर्यायों को ग्रहण करता है।   द्रव्य निक्षेप के स्वरूप से जुड़ा एक पक्ष और है तथा वह है-अनुपयोग। ज्ञाता की अनुपयुक्त अवस्था भी द्रव्य निक्षेप कहलाती है। भविष्य में जो राजा बनेगा अथवा राज्य संचालन के दायित्व से जो मुक्त हो गया। दोनों ही राजा के संबोधन से संबोधित किए जाते हैं। भूत और भावी अवस्था के कारण व्यक्ति या वस्तु की उस अभिप्राय से पहचान करना द्रव्य निक्षेप है, जैसे - जो व्यक्ति पहले उपाध्याय रह चुका अथवा भविष्य में उपाध्याय बनने वाला है, उस व्यक्ति को वर्तमान में उपाध्याय कहना।

उपयोग शून्यता की अवस्था में भी द्रव्य निक्षेप का प्रयोग होता है, जैसे~ अध्यापन कार्य में प्रवृत होने पर भी अध्यवसाय-शून्यता की स्थिति में अध्यापक 'द्रव्य अध्यापक' है । इसके तीन रूप बनते हैं।

1. आगमत द्रव्य निक्षेप :- उपयोगरूप आगमज्ञान नहीं होता, लब्धि रूप होता है। कोई व्यक्ति जीव विषयक अथवा अन्य किसी वस्तु का ज्ञाता है किन्तु वर्तमान में उस उपयोग से रहित है उसे आगमत: द्रव्य निक्षेप कहा जाता है। ज्ञाता है, ज्ञान है (लब्धि है), उपयोग नहीं।

(No more teacher but is called teacher)

2. नो आगमत: द्रव्य निक्षेप :- ज्ञान नहीं होता। सिर्फ आगम ज्ञान का कारणभूत शरीर होता है- न उपयोग, न लब्धि, न मूल ज्ञान। आगम द्रव्य की आत्मा का उसके शरीर में आरोप करके उस जीव के शरीर को ही ज्ञाता कहना....न उपयोग, न मूल ज्ञान, न ही लब्धि।

(अध्यापन कार्य में प्रवृत्त होने पर भी अध्यवसाय शून्यता effortless)

नोआगमत: के तीन भेद हैं-

A) ज्ञ शरीर:- आवश्यक सूत्र के ज्ञाता की मृत्यु हो जाने पर भी उसे ज्ञाता कहना।

B) भव्य शरीर:- जन्मजात बच्चे को कहना यह आवश्यक सूत्र का ज्ञाता है। वर्तमान में आवश्यक के बोध से शून्य है। भविष्य में ज्ञान करने वाली आत्मा (future, no present).

C) तद्व्यतिरिक्त:- (द्रव्य निक्षेप का कार्य सबसे अधिक व्यापक है) वस्त्र के कर्त्ता या वस्त्र निर्माण की सामग्री को वस्त्र कहना। वस्तु की उपकारक सामग्री में वस्तुवाची शब्द का व्यवहार किया जाता है। अध्यापन के समय हस्त संकेत आदि क्रिया को अध्यापक कहना। अध्यापक के शरीर को अध्यापक कहना अध्यापक का अर्थ जानने वाले व्यक्ति का शरीर अपेक्षित है।

3. नो आगम तद्व्यतिरिक्त द्रव्य निक्षेप - आगम का सर्वथा अभाव होता है। यह क्रिया की अपेक्षा द्रव्य है, इसके तीन रूप बनते हैं।

A) लौकिक- दूब आदि मंगल है। लोकमान्यतानुसार दूब आदिमंगल है।

B) कुप्रावचनिक- मान्यतानुसार विनायक मंगल है।

C) लोकोत्तर- मान्यतानुसार ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप आदि धर्म मंगल है।

4) भाव निक्षेप- जिस व्यक्ति या वस्तु का जो स्वरूप है,वर्तमान में वह उसी स्वरूप को प्राप्त है, अर्थात् उसी पर्याय में परिणत है, वह भाव निक्षेप है। इसमें किसी प्रकार का उपचार नहीं होता । इसीलिए वह वास्तविक निक्षेप है; जबकि द्रव्य निक्षेप में पूर्वोत्तर दशा होती है। स्वर्ग में देवों को देव कहना यह वास्तविक निक्षेप है। जैसे- अध्यापन की क्रिया में प्रवृत्त व्यक्ति को ही अध्यापक कहना।
अध्यापक की भाँति ही अर्हत् शब्द के भी निक्षेप किये जा सकते है

1. नाम अर्हत्- अर्हत् कुमार नाम का व्यक्ति।
2. स्थापना अर्हत्- अर्हत् की प्रतिमा ।
3. द्रव्य अर्हत्- जो अतीत में तीर्थंकर हो चुके तथा भविष्य में होने वाले हैं।
4. भाव अर्हत्- जो केवलज्ञान उपलब्ध कर चतुर्विध धर्मसंघ की स्थापना करने वाले तीर्थंकर।

A) आगमत: भाव निक्षेप :- (ज्ञान + उपयोग दोनों) उपाध्याय का अर्थ जानने वाला तथा उस अनुभव में परिणत व्यक्ति को आगमत: भाव उपाध्याय कहते हैं। उपाध्याय शब्द के अर्थ में उपयुक्त आगमत:  भाव निक्षेप।

B) नो आगमत: भाव निक्षेप:- उपाध्याय के अर्थ को जानने वाला तथा अध्यापन क्रिया (ज्ञान + क्रिया दोनों) में प्रवृत्त भाव निक्षेप (भाव उपाध्याय)  नो आगमत: भाव निक्षेप कहा जाता है।
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हमने अब तक ४-६ प्रकार के निक्षेप पढ़े लेकिन यहाँ एक प्रयोग से हम ४-६ ही नहीं अपितु अनेक प्रकार से 'उत्तर'शब्द के निक्षेप करके समझेंगें।

उत्तर शब्द के निक्षेप -

१५ प्रकार के निक्षेपों के माध्यम से उत्तर शब्द का न्यास ।

१. नाम उत्तर- किसी का नामकरण - स्वामी उत्तरसिंह

२. स्थापना उत्तर- मूर्ति आदि में स्वामी उत्तरसिंह की स्थापना ।

३. द्रव्य उत्तर

A. आगमत: - उत्तर शब्द का ज्ञाता किन्तु अनुपयुक्त

B. नो आगमत: - जिसने अतीत में उत्तर शब्द को जाना उसका शरीर।

1. भव्य शरीर - अनागत में उत्तर शब्द को जानेगा ।

(C) तद्व्यतिरिक्त के तीन भेद

1. सचित - पिता के उत्तर  में पुत्र

2. अचित - दूध का उत्तरवर्ती दही

3. मिश्र - माँ के शरीर से उत्पन्न रोम आदि युक्त संतान ।

४. क्षेत्र उत्तर - मेरू आदि की अपेक्षा उत्तर में स्थित उत्तर कुरु ।

५. दिशा उत्तर - उत्तर दिशा ।

६. क्षेत्र उत्तर - सबके उत्तर में है मन्दराचल ।

७. प्रज्ञापक उत्तर - प्रज्ञापक के बाएँ भाग में स्थित व्यक्ति ।

८. प्रति उत्तर - एक दिशा में स्थित देवदत और यज्ञदत में देवदत से परे यज्ञदत उत्तर ।

९. काल उत्तर - समय के उत्तर में आवलिका ।

१०. संचय उत्तर - धान्य राशि के ऊपर काष्ठ ।

११. प्रधान उत्तर -

क -सचित

(A) द्विपद में उत्तर - तीर्थंकर

(B ) चतुष्पदों में उत्तर सिंह।

(C) अपद में उत्तर जंबू वृक्ष ।

ख- अचित्त - चिन्तामणि ।

ग - मिश्र - गृहस्थ अवस्था में अंलकार युक्त तीर्थंकर ।

१२. ज्ञान उत्तर - निरावरणता के कारण केवलज्ञान अथवा स्वपरप्रकाशत्व के कारण श्रुतज्ञान।

१३. क्रम उत्तर

द्रव्यत: एक परमाणु से उत्तर है, द्विप्रदेशीस्कन्ध, त्रिप्रदेशी स्कन्ध, अनन्तप्रदेशी स्कन्ध ।
क्षेत्रत: एक प्रदेश में अवगाह तीन, चार असंख्य प्रदेशावगाह ।
कालत: एक समय की स्थिति के उत्तर में है, दो समय की स्थिति असंख्य समय की स्थिति ।
भावतः एक गुण कृष्ण के उत्तर में, दो गुण कृष्ण, तीन गुण कृष्ण

१४. गणना उत्तर- एक के उत्तर में दो, दो के उत्तर में तीन... शीर्षप्रहेलिका।

१५. भाव उत्तर- औदायिक आदि पांच भावों में क्षायिक भाव उत्तर है।

निष्कर्ष:


हम अनेक प्रकार से निक्षेप कर सकते हैं।वस्तु सत्य यह है कि हम निक्षेप से ही प्रत्येक शब्द के सही प्रयोजन तक पहुंच कर व्यवहार चलाते हैं।

Saturday 31 October 2015

जैन दर्शन - प्रमाण मीमांसा

उपासक तत्व चर्चा whatsapp ग्रुप में डा. मंजू जी नाहटा द्वारा लिखे गए posts का संकलन :

प्रमाण का अर्थ:-
प्रमाण का अर्थ - किसी भी पदार्थ को जानने का माध्यम या साधन। definition- "प्रमाकरणं प्रमाणं"
प्रमा का अर्थ है ज्ञान। करण का अर्थ है साधन।अत: अर्थ हुआज्ञान ( प्रमा) का साधन प्रमाण है।
एक और शब्द है - न्याय । इसे भी जानें। कारण- प्रमाण, प्रमेय, प्रमिति, प्रमाता - ये न्याय के ४ अंग हैं।– "चतुरंग: न्याय: " 
अभी हम न्याय के प्रथम अंग प्रमाण की चर्चा करेंगें।
जैनदर्शन में प्रमाण की शुरूआत:
जैनों के आगमों में पंच ज्ञान का सिद्धांत ही प्राचीन था।
जैन दर्शन में सर्वप्रथम पहली शती AD के आसपास उमास्वाति ने प्रमाण की चर्चा की।फिर भी इस प्रमाण के क्षेत्र में हम जैनों का प्रवेश बौद्धों, नैयायिकों, मीमांसकों के बहुत पश्चात् ही हुआ। पण्डित सुखलालजी के अनुसार
1/. आगम युग-1st century AD,
 2/.अनेकांतस्थापनायुग 2nd cent. AD से 8th cent.AD
3/. न्याय-प्रमाणस्थापना युग 8th cent.AD onwards.

जैनदर्शन में प्रमाण की आवश्यकता:
अनेकांतवाद जैन दर्शन का आधारभूत सिद्धांत रहा है।
आगमयुग में अनेकांत का उपयोग द्रव्य मींमांसा के लिए हुआ करता था।किंतु समय में परिवर्तन हुआ- खण्डन मण्डन का युग आया तब अनेकान्त का उपयोग क्षेत्र भी बदल गया। अब इस दर्शन युग में अनेकान्त का उपयोग विभिन्न दार्शनिक समस्याओं को सुलझाने एवं एकांतवादी दर्शनों के सिद्धान्तों के मध्य समन्वय स्थापित करने मे होने लगा। धीरे - धीरे प्रमाण व्यवस्था का विकास होने पर वहाँ भी अनेकान्त का व्यापक उपयोग होने लगा।
जैन आगम ज्ञान मीमांसा प्रधान रहे हैं किन्तु आगमोत्तर युग मे जैसे - जैसे न्याय विद्या का विकास हुआ वैसे - वैसे प्रमाण मीमांसा की आवश्यकता महसूस होने लगी।
प्रमाण के भेद :-
जैन दर्शन में प्रमाण के दो भेद माने गए हैं - प्रत्यक्ष , परोक्ष । हम पदार्थ को या तो साक्षात् देखते हैं या किसी माध्यम से । अर्थात् जानने की दो पद्धतियाँ होती हैं ।

Notable:
प्रत्येक भारतीय दर्शन में प्रमाण के साथ प्रत्यक्ष शब्द का ही प्रयोग हुआ है। लेकिन जैन ज्ञानमीमांसा, प्रमाण मीमांसा में प्रमाण के साथ प्रत्यक्ष शब्द के साथ परोक्ष का भी प्रयोग हुआ है।प्रमाण को बिस्तार से समझने से पहले आवश्यक है कि जैन आचार्यों द्वारा दी गई प्रमाण की परिभाषाओं को हम हृदयंगम करें।

प्रमाण की परिभाषाएँ :-

सही है कि हम किसी वस्तु को जानना चाहते हैं तो सर्वप्रथम उसकी परिभाषाओं पर दृष्टिपात करें।
आचार्य उमास्वाति ने ज्ञान को प्रमाण कह दिया। "ज्ञानं प्रमाणं"। 

लेकिन उस युग के जो न्यायविद् थे। वे इतनी सी परिभाषा से संतुष्ट नहीं हुए। अत: later दार्शनिकों की दृष्टि से प्रमाण को परिभाषित करते हुए आचार्य सिद्धसेन और आचार्य समंतभद्र कहते हैं:- "प्रमाणं स्वपरावभासिज्ञानं बाधविवर्जितं ।" अर्थात् स्वपरप्रकाशी निर्दोष ज्ञान प्रमाण हैं। 

जैनों ने बड़ी विलक्षणता से पक्ष-प्रतिपक्ष के गुण दोषों का मूल्याँकन कर अपनी अनेकान्त दृष्टि के आधार पर यह व्यापक परिभाषा बनायी । जैनों ने यह परिभाषा नैयायिक , मीमांसक एवं बौद्धों के पश्चात् बनाई थी अत: अपनी तरफ़ से परिभाषाओं को ठीक करते हुए नई परिभाषा प्रस्तुत की -"प्रमाणं स्वपरावभासिज्ञानं बाधविवर्जितं ।" इस परिभाषा का अर्थ हुआ

अर्थात् जो स्वपरप्रकाशी और निर्दोष ज्ञान है - वह प्रमाण हैं। नैयायिक ज्ञान को स्व संवेदी नही मानते अर्थात् ज्ञान स्वयं अपने आपको नही जानता दूसरे ज्ञान से जाना जाता है इसी प्रकार मीमांसक भी परोक्ष ज्ञानवादी थे वे कहते हैं कि ज्ञान स्वयं, स्वयं को नही जानता जिस प्रकार एक चाकू स्वयं, स्वयं को नही काट सकता - एक चाक़ू  को काटने के लिए हमें दुसरे चाक़ू की आवश्यकता होती है। एक नट अपने ही कंधे पर चढ़कर नाच नही सकता। हाँ, दूसरे कंधों पर या रस्सी पर कहेंगे तो वह चढ़ सकता है । अब दूसरी और देखिए जो विज्ञानवादी बौद्ध हैं वे ज्ञान को स्व संवेदी ही मान रहे थे। बाह्य पदार्थो को मिथ्या कहा और परभासित्व अर्थात् दूसरों को जानने की बात को नकार दिया।जैन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने इन दोनों के बीच समन्वय स्थापित करते हुए अपने प्रमाण की परिभाषा में स्वपरावभासि एवं बाधविवर्जित (निर्दोष) इन दोनों विशेषणों का चतुराई से प्रयोग किया।

ज्ञान स्वप्रकाशी और अर्थप्रकाशी दोनों है अर्थात् जो ज्ञान अपना और पर का बोध कराए, वह प्रमाण है।
 सीधे शब्दों में वही ज्ञान प्रमाण की category में सम्मिलित होगा जो स्वयं को जानने के साथ पर को भी जाने।

इनके पश्चात अकलंक आए उन्होंने सिद्धसेन द्वारा प्रयुक्त 'बाधविवर्जित'  शब्द को स्वीकार नहीं किया और प्रमाण उसे कहा जो अविसंवादी ( सत्य ख्यापित करने वाला) और अज्ञात अर्थ को जानने वाला हो वही ज्ञान प्रमाण है।- "प्रमाणमविसंवादीज्ञानमधिगतार्थलक्ष्णत्वात् "। इसका अर्थ हुआ - ज्ञात अर्थ को पुन: जानना प्रमाण नहीं।

इनकी परिभाषा से जो अर्थ निकलता है वह कुमारिल( एक मीमांसक आचार्य) और धर्मकीर्ति (एक बौद्ध आचार्य) का प्रभाव परिलक्षित हो रहा है।

इनके पश्चात विद्यानंद, वादिदेवसूरि द्वारा दी गई परिभाषाएँ तो प्राय: आचार्य सिद्धसेन और समंतभद्र द्वारा दी गई परिभाषाओं से मेल खाती हुईं ही हैं। केवल उनके शब्दान्तर मात्र ही हैं।आचार्य सिद्धसेन और समंतभद्र ने 'अवभास' पद का प्रयोग किया और और इन्होंने 'व्यवसाय' या निर्णीत पद का प्रयोग कर लिया। आचार्य विद्यानंद - "स्वपरव्यवसायी ज्ञानं प्रमाणम्"।

चतुर्थ वर्ग में हेमचंद्राचार्य ने 'स्व, बाधविवर्जित, अनधिगत, या अपूर्व' आदि सभी पद हटा कर एक नई परिभाषा दी – "सम्यगर्थनिर्णय:"

भिक्षुन्यायकर्णिका में आ.तुलसी ने परिभाषा दी – "यथार्थज्ञानं प्रमाणम्"-( वस्तु को जानने का साधन प्रमाण है)।

आइए अब समझें ज्ञान और प्रमाण क्या हैं? क्या दोनों में कोई समानता है?

उत्तर- हर ज्ञान प्रमाण नहीं होगा। लेकिन प्रमाण ज्ञान ही होगा।
जैन परंपरा ज्ञान को ही प्रमाण मानती है।ज्ञान को प्रमाण किस आधार पर कहा गया? और प्रमाण के विभाग कैसे किये गये? - आचार्य महाप्रज्ञ का उत्तर- "ज्ञान केवल आत्म का विकास है। प्रमाण पदार्थ के प्रति ज्ञान का सही व्यापार है। ज्ञान आत्मनिष्ठ है। प्रमाण का संबंध अंतर्जगत् और बहिर्जगत् दोनों से है। बहिर्जगत् की यथार्थ घटनाओं को जब अंतर्जगत् तक पहुँचाए यही प्रमाण का जीवन है। बहिर्जगत् के प्रति ज्ञान का व्यापार एक सा नहीं होता। ज्ञान का विकास प्रबल होता है तब वह बाह्य साधन की सहायता के बिना ही विषय को जान लेता है।विकास कम होता है तब वह बाह्य साधन का सहारा लेना पड़ता है।"

ज्ञान को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं।
१/. यथार्थ- केवल प्रमाण
२/. अयथार्थ- प्रमाण नहीं, केवल(only) ज्ञान।
अयथार्थ ज्ञान प्रमाण नहीं होता है। अयथार्थ ज्ञान तीन प्रकार का होता है।- विपर्यय, संशय, अनध्यवसाय।
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भारतीय परंपरा में मात्र ज्ञान पर विश्लेषण नंदी सूत्र में ही पाया जाता है। आगमों में कहीं परोक्ष शब्द का प्रयोग  इस context में नहीं मिलता है। वहाँ ५ ज्ञान की चर्चा है।

आगम युग में ज्ञान चर्चा के विकास क्रम में तीन भूमिकाएं बनती हैं।:

१/. भगवती सूत्र में ज्ञान को ५ भेदों में विभक्त किया गया है।

२/. स्थानांगसूत्र में ज्ञान को २ भेदों में विभक्त किया गया है।प्रथम दो ज्ञान परोक्ष हैं वे इंद्रिय उत्पन्न ज्ञान हैं। द्वितीय अंतिम ३ ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। हम उन्हें आत्म -सापेक्ष ज्ञान कह सकते हैं।
यहाँ problem यह है कि जिस इंद्रिय ज्ञान को अन्य सभी दार्शनिक प्रत्यक्ष स्वीकार करते थेवह इंद्रिय ज्ञान जैन परंपरा में परोक्ष ही रहा। यह जैनों के आगम युग की देन थी।

 ३/. नंदी सूत्र में ज्ञान को ५ भागों में विभक्त करके फिर इनका समावेश प्रथम बार प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो भेदों में किया।

यह सब बाद के दार्शनिकों ने develop किया, विस्तार किया। 'परोक्ष' एक ऐसा शब्द है जो जैन ज्ञान मीमांसा या प्रमाण मीमांसा में ही प्रयुक्त हुआ है। Jain Logicians का यह original contribution है– " परोक्ष की अवधारणा"।

इस विभाजन की यह विशेषता है कि इसमें इंद्रियजन्य मतिज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दोनों भेदों के अंतर्गत स्वीकार किया गया है।

इंद्रिय ज्ञान वस्तुत: तो परोक्ष ही है लेकिन लोकव्यवहार के कारण उसको प्रत्यक्ष कहा है। वास्तविक प्रत्यक्ष तो अवधि, मन:पर्यव एवं केवल ज्ञान ही है।

Conclusion:

1/. अवधि, मन:पर्यव एवं केवलज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है।
2/. श्रुतज्ञान परोक्ष ही है।
3/. इंद्रियजन्य मतिज्ञान पारमार्थिक दृष्टि से परोक्ष है और व्यवहारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष है। 
4/. मनोजन्य मतिज्ञान परोक्ष ही है।

जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने सर्वप्रथम 'विशेषावश्यक भाष्य' में इंद्रिय ज्ञान के लिए सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग किया। हालाँकि लोग इसके प्रथम उपयोग करने वाले को आचार्य अकलंक मानते हैं।
आचार्य अकलंक को मानने के कारण:-

१/. अकलंक उत्तरवर्ती आचार्य हैं।
२/. अकलंक के ग्रंथ संस्कृत में थे इसलिए लोग उन्हें आसानी से पढ़ पाते थे। इसलिए अकलंक का नाम लिया जाता है।

 सारे दार्शनिक उस समय इंद्रिय से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष मान रहे थेवाद विवाद का समय था। तब जैनों ने जटिल परिस्थिति में स्वयं की सुरक्षा के लिए सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष को स्वीकार किया।
प्रत्यक्ष का अर्थ है -

१/. आत्मा,
२/. इंद्रिय। 

इसलिए इसका समाहार इंद्रिय-प्रत्यक्ष और आत्म-प्रत्यक्ष में करते हैं। "
आत्मा के दो गुण हैं।
१/. ज्ञान और २/. दर्शन।

दर्शन प्रमाण नहीं बनता केवल (only) ज्ञान ही प्रमाण बनता है।

प्रमाण की आवश्यकता:-
वस्तु का अर्थ स्वत: सिद्ध होता है।
ज्ञाता उसको जाने या न जाने इससे उसके अस्तित्व में अंतर नहीं पड़ता। हाँ , जब वह वस्तु ज्ञाता के द्वारा जानी जाय तब वह प्रमेय बन जाती है। और ज्ञाता जिससे जानता है, वह ज्ञान यदि सम्यक् और निर्णायक होता है तो प्रमाण बन जता है।

भिक्षुन्यायकर्णिका में आ.तुलसी ने परिभाषित करते हुए लिखा है
 "युक्त्यार्थपरीक्षणं न्याय:"युक्ति के द्वारा पदार्थ का परीक्षण करना न्याय है। यहाँ दो शब्दों को समझना ज़रूरी हैयुक्ति और परीक्षा।

१/. युक्ति- साध्य और साधन के अविरोध का नाम है युक्ति।
२/. परीक्षा- एक वस्तु के बारे में अनेक विरोधी विचार सामने आते हैं। तब उनके बलाबल अर्थात् सही ग़लत के निर्णय करने के लिए जो विचार किया जाता है उसका नाम परीक्षा है।

प्रयोजन of न्याय:- पदार्थ का ज्ञान, वस्तु को जानना। वस्तु को जानने के साधन: वस्तु को जानने के साधन दो हैं।

१/. लक्षण
२/. प्रमाण
१/. लक्षण:- लक्षण का अर्थ पहचान, identity, यह वस्तुगत होती है। लक्षण के दो प्रकार हैं:-
१/. आत्मभूत लक्षण
२/. अनात्मभूत लक्षण
१.आत्मभूत लक्षण:- जिस लक्षण से स्वयं को अलग न किया जा सके।जैसे- गेहूँ से लकीर, जीव से चेतना, गाय से सास्ना( गलकंबल), साधु से महाव्रत। intrinsic nature.
२. अनात्मभूत लक्षण:- जो लक्षण लक्ष्य से अलग किया जा सके। जैसे दण्डी से दण्ड, चश्मुद्दीन से चश्मा, लाल टोपी वाले से टोपी।
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Qu.1. प्रमाण क्या है?

Ans.1. किसी भी पदार्थ को जानने का माध्यम या साधन।

Qu.2.प्रमाण की परिभाषा क्या है

Ans.2."प्रमाकरणं प्रमाणं" 

प्रमा का अर्थ है ज्ञान। करण का अर्थ है साधन।अत: अर्थ हुआज्ञान ( प्रमा) का साधन प्रमाण है।

Qu.3.न्याय क्या है।

Ans.3.युक्ति के द्वारा पदार्थ (प्रमेय) वस्तु की परीक्षा करना । इसके चार अंग है

i.  प्रमाण – (यथार्थ ज्ञान) मीमांसा का मानदंड
ii.  प्रमेय – (पदार्थ) जिसकी मीमांसा की जाए
iii. प्रमाता (आत्मा) तत्त्व की मीमांसा करने वाला
iv. प्रमिति (हेय-ज्ञेय-उपादेय बुद्धि) मीमांसा का फल

Qu.4.प्रमाण और न्याय में क्या कोई संबंध है?

Ans.4. प्रमाण, न्याय का ही एक अंग है ।

Qu.5.जैन दर्शन में प्रमाण-मीमांसा की शुरुआत कब और कैसे हुई

Ans.5. भगवान् महावीर के समय में भी वादी मुनि थे, जो अपने मत की स्थापना व दूसरे मत का युक्ति सहित निराकरण करते थे, परन्तु आप्तपुरुष की उपस्थिति में शायद उस समय इसको प्रमाण-मीमांसा में नहीं माना गया ।  

जैन दर्शन में सर्वप्रथम पहली शती AD के आसपास उमास्वाति ने प्रमाण की चर्चा की।फिर भी इस प्रमाण के क्षेत्र में हम जैनों का प्रवेश बौद्धों, नैयायिकों, मीमांसकों के बहुत पश्चात् ही हुआ। आचार्य सिद्धसेन और आचार्य समंतभद्र और आचार्य अकलंक आदि ने इसके क्रमशः विकास में योगदान दिया।

Qu.6. जैन दर्शन में प्रमाण मीमंसा की आवश्यकता क्यों पड़ी?

Ans.6.अनेकांतवाद जैन दर्शन का आधारभूत सिद्धांत रहा है।
आगमयुग में अनेकांत का उपयोग द्रव्य मींमांसा के लिए हुआ करता था।किंतु समय में परिवर्तन हुआ- खण्डन मण्डन का युग आया तब अनेकान्त का उपयोग क्षेत्र भी बदल गया। अब इस दर्शन युग में अनेकान्त का उपयोग विभिन्न दार्शनिक समस्याओं को सुलझाने एवं एकांतवादी दर्शनों के सिद्धान्तों के मध्य समन्वय स्थापित करने मे होने लगा। धीरे - धीरे प्रमाण व्यवस्था का विकास होने पर वहाँ भी अनेकान्त का व्यापक उपयोग होने लगा।

Qu.7.प्रमाण के भेद कितने है !(मौटे तौर पर)

Ans.7.  1/प्रत्यक्ष ,
             2/. परोक्ष।

Qu.8.जैनों की प्रमाण मीमांसा में एक विशेषता क्या है  ? जैन आचार्यों द्वारा दी गई परिभाषाओं को क्रमश: समझें और अनुभव करें कि किसकी परिभाषा किस दर्शनमें प्रभावित है?

Answer8:

1. आचार्य उमास्वाति ने ज्ञान को प्रमाण कह दिया। "ज्ञानं प्रमाणं"। लेकिन उस युग के जो न्यायविद् थे। वे इतनी सी परिभाषा से संतुष्ट नहीं हुए।

2. तदुपरान्त दार्शनिकों की दृष्टि से प्रमाण को परिभाषित करते हुए आचार्य सिद्धसेन और आचार्य समंतभद्र कहते हैं:- "प्रमाणं स्वपरावभासिज्ञानं बाधविवर्जितं ।" अर्थात् स्वपरप्रकाशी निर्दोष ज्ञान प्रमाण हैं। जैनों ने बड़ी विलक्षणता से पक्ष-प्रतिपक्ष के गुण दोषों का मूल्याँकन कर अपनी अनेकान्त दृष्टि के आधार पर यह व्यापक परिभाषा बनायी । जैनों ने यह परिभाषा नैयायिक , मीमांसक एवं बौद्धों के पश्चात् बनाई अत: इस परिभाषाओं को ठीक करते हुए नई परिभाषाएँ  प्रस्तुत की।

अर्थात् जो स्वपरप्रकाशी और निर्दोष ज्ञान है - वह प्रमाण हैं। नैयायिक ज्ञान को स्व संवेदी नही मानते अर्थात् ज्ञान स्वयं अपने आपको नही जानता दूसरे ज्ञान से जाना जाता है इसी प्रकार मीमांसक भी परोक्ष ज्ञानवादी थे वे कहते है कि ज्ञान स्वयं, स्वयं को नही जानता जिस प्रकार एक चाकू स्वयं, स्वयं को नही काट सकता - एक चाकु को काटने के लिए हमें दुसरे चाकु की आवश्यकता होती है। एक नट अपने ही कंधे पर चढ़कर नाच नही सकता। हाँ, दूसरे कंधों पर या रस्सी पर कहेंगे तो चढ़ सकता है ।

3. जो विज्ञानवादी बौद्ध हैं वे ज्ञान को स्व संवेदी ही मान रहे थे। बाह्य पदार्थों को मिथ्या कहा और परभासित्व अर्थात् दूसरों को जानने की बात को नकार दिया।जैन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने इन दोनों के बीच समन्वय स्थापित करते हुए अपने प्रमाण की परिभाषा में स्वपरावभासि एवं बाधविवर्जित (निर्दोष) इन दोनों विशेषणों का चतुराई से प्रयोग किया।

ज्ञान स्वप्रकाशी और अर्थप्रकाशी दोनों है अर्थात् जो ज्ञान अपना और पर का बोध कराए, वह प्रमाण है।
सीधे शब्दों में वही ज्ञान प्रमाण की category में सम्मिलित होगा जो स्वयं को जानने के साथ पर को भी जाने।

4. इनके पश्चात अकलंक आए उन्होंने सिद्धसेन द्वारा प्रयुक्त 'बाधविवर्जित' शब्द को स्वीकार नहीं किया और प्रमाण उसे कहा जो अविसंवादी ( सत्य ख्यापित करने वाला) और अज्ञात अर्थ को जानने वाला हो वही ज्ञान प्रमाण है।- "प्रमाणमविसंवादीज्ञानमधिगतार्थलक्ष्णत्वात् "। इसका अर्थ हुआ - ज्ञात अर्थ को पुन: जानना प्रमाण नहीं।

इनकी परिभाषा से जो अर्थ निकलता है वह कुमारिल( एक मीमांसक आचार्य) और धर्मकीर्ति (एक बौद्ध आचार्य) का प्रभाव परिलक्षित हो रहा है।

5. इनके पश्चात विद्यानंद, वादिदेवसूरि द्वारा दी गई परिभाषाएँ तो प्राय: आचार्य सिद्धसेन और समंतभद्र द्वारा दी गई परिभाषाओं से मेल खाती हुईं ही हैं। केवल उनके शब्दान्तर मात्र ही हैं।आचार्य सिद्धसेन और समंतभद्र ने अवभास पद का प्रयोग किया और और इन्होंने व्यवसाय या निर्णीत पद का प्रयोग कर लिया। आचार्य विद्यानंद - "स्वपरव्यवसायी ज्ञानं प्रमाणम्"।

6. हेमचंद्राचार्य ने स्व, बाधविवर्जित, अनधिगत, या अपूर्व आदि सभी पद हटा कर एक नई परिभाषा दी – "सम्यगर्थनिर्णय: प्रमाणम्"

7. भिक्षुन्यायकर्णिका में आ.तुलसी ने परिभाषा दी – "यथार्थज्ञानं प्रमाणम्"।

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Question:  "युक्ति- साध्य और साधन के अविरोध का नाम है युक्ति।" साध्य और साधन में अविरोध कैसे होगा ? कोई उदाहरण


Answer: युक्ति

•  साध्य और साधन में अविरोध ।
•  It means there is no contradiction between probandum (साध्य) and probans (साधन) ।
•  साध्य है अग्नि और साधन है धुआं ।
•  यदि इनमें विरोध हुआ तो उसका अर्थ हुआ धुआं है, अग्नि नहीं है। यह कोई युक्ति नहीं हुई ।
क्या कभी आग के बिना धुआं उठेगा ? यदि इनमें अविरोध होगा तो अर्थ होगा जहाँ- जहाँ धुआं है, वहाँ-वहाँ अग्नि है । यह युक्ति हुई ।

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मिथ्या ज्ञान को प्रमाणाभास कहते हैं। वे तीन हैं:-
 1/.  संशय
2/.  विपर्यय
3/. अनध्यवसाय

१/. संशय-विरुद्ध अनेक कोटि स्पर्श करने वाले ज्ञान को संशय कहते है, जैसे यह सीप है या चांदी। व्यक्ति doubtful रहता है।

२/. विपर्यय- विपरीत एक कोटि ज्ञान के निश्चय करने वाले ज्ञान को विपर्यय कहते है। जैसे सीप को चांदी जानना।wrong knowledge.

३/. अनध्यवसाय- यह क्या है! ऐसे प्रतिभास को अनध्यवसाय कहते हैं जैसे-मार्ग में चलते हुए तृण का ज्ञान करना। actually अनध्यवसाय आलोचना मात्र होता है। किसी पक्षी को देखाऔर एक आलोचना शुरू हो गयी -इस पक्षी का नाम क्या है? चलते चलते किसी पदार्थ का स्पर्श हुआ। यह जान लिया स्पर्श हुआ है किन्तु किस वस्तु का हुआ है, यह नहीं जाना। इस ज्ञान की आलोचना में ही परिसमाप्ति हो जाती है, कोई निर्णय नहीं निकलता। इसमें वस्तु स्वरूप का अन्यथा (उलटा-पुल्टा) ग्रहण नहीं होता इसलिए यह विपर्यय से भिन्न है और यह विशेष का स्पर्श नहीं करता, इसलिए संशय से भिन्न है।

Conclusion:

1.यथार्थ ज्ञान=यह रस्सी है।
2.विपर्ययज्ञान =यह साँप है।
3.संशय ज्ञान =यह रस्सी है, या साँप है।
4.अनध्यवसाय ज्ञान= रस्सी को दैख कर भी पता नहीं चलता कि यह किया है? विषय का स्पर्श मात्र हुआ, नामोल्लेख नहीं होता। अगर यह आगे बढ़े तो अवग्रह के अंतर्गत आ जाएगा।
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प्रत्यक्ष प्रमाण

प्रत्यक्ष प्रमाण की चर्चा :-

जैन दर्शन के अनुसार आत्मा से होने वाला ज्ञान प्रमाण है जबकि प्रायः सभी दार्शनिक प्रत्यक्ष शब्द की व्युत्पत्ति में 'अक्ष' पद का अर्थ इन्द्रिय मानकर कर रहे थे । उनमें से किसी दर्शन ने भी 'अक्ष' शब्द का 'आत्मा' अर्थ मानकर व्युत्पत्ति नहीं की ।

न्याय- वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसा आदि दर्शनों के अनुसार इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है ।

इन दर्शनों में प्रसिद्ध प्रत्यक्ष-प्रमाण जैन आगमिक परम्परा के अनुसार परोक्ष-प्रमाण कहलाता है । जैन दार्शनिकों ने इस विरोध को दूर करने के लिए और अन्य दर्शनों के साथ समन्वय करने की दृष्टि से प्रत्यक्ष की परिभाषा में कुछ परिवर्तन किया और कहा 'विशदः प्रत्यक्षम्' -विशद् (स्पष्ट) ज्ञान प्रत्यक्ष है ।

प्रत्यक्ष के उन्होंने दो भेद कर दिये-१/. पारमार्थिक प्रत्यक्ष और  २/. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष।
सर्व प्रथम जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण और आचार्य अकलंक ने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के रूप में इन्द्रिय प्रत्यक्ष को प्रतिष्ठापित कर आगमिक और दार्शनिक युग का समन्वय किया । इस प्रकार जैन दृष्टि से सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अन्य दर्शनों के साथ समन्वय का फलित रूप है।

जैन दर्शन में प्रत्यक्ष के दो प्रकार माने गए हैं।

1/ पारमार्थिक प्रत्यक्ष,
2/ सांव्यव्हारिक प्रत्यक्ष।

1/. पारमार्थिक प्रत्यक्ष                  (transcendent)
जिस ज्ञान में इन्द्रिय,मन या किसी अन्य प्रमाणों की सहायता की अपेक्षा नहीं होती तथा जो आत्मा से सीधा होता है, उसे पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं।

इसके तीन प्रकार है-

1. अवधिज्ञान,
2. मनः पर्यवज्ञान,
3. केवलज्ञान।

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परोक्ष प्रमाण

जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में प्रत्यक्ष प्रमाण समझने के पश्चात् हम परोक्ष प्रमाण को समझें

Qu. परोक्ष प्रमाण के भेद?

Ans. मुख्य ५ हैं।

१/. स्मृति
२/. प्रत्यभिज्ञा
३/. तर्क
४/. अनुमान
५/. आगम

१/. स्मृति हम अपना अधिकांश व्यवहार स्मृति के आधार पर ही चलाते हैं। पानी पीते हैं और प्यास बुझ जाती है। यह हमारा जो अनुभव किया हुआ है उसकी स्मृति के आधार पर ही हमें जब-जब प्यास लगती है हम पानी पीते हैं। और पाते हैं कि easily प्यास बुझ जाती है। अत: जैन स्मृति को प्रमाण मानते हैं।
लेकिन कुछ लोग ऐसा तर्क भी देते हैं कि कभी कभी स्मृति गलत भी हो जाती है। ऐसी अयथार्थ स्मृति को प्रमाण कैसे समझा जाय?
इस आरोप का जैन कुछ इस तरह समाधान देते हैंजैसे कभी उड़ती हुई धूल को दूर से देख कर प्रत्यक्ष लगता है कि धुंआ उठ रहा है। अत: ऐसे अयथार्थ ज्ञान कभी कभी प्रत्यक्ष में भी हो जाते हैं। ऐसे ही कभी स्मृति से भी ऐसे अयथार्थ ज्ञान होने की संभावना हो सकती है। प्रमाणयुग में अन्य दार्शनिकों ने  जैनों द्वारा स्मृति को प्रमाण मानने की युक्तियों पर आक्षेप लगाए गए। जैनों द्वारा दूसरों के द्वारा लगाए हुए आक्षेपों की समीक्षाओं के उत्तर में ये युक्तियाँ दी गईं।

Question:

अन्य दार्शनिकों द्वारा जैनों के परोक्ष प्रमाण स्मृति पर लगाए गए आक्षेप क्या थे? और जैनों द्वारा स्मृति को परोक्ष प्रमाण सिद्ध करते हुए क्या उत्तर दिए गए?

1/ बौद्ध: 
बौद्धो ने स्मृति को प्रमाण नहीं माना। उसे प्रमाण न मानने के पीछे उनका यह तर्क था की स्मृति पूर्व अनुभव के अधीन होती है इसीलिए वह अपूर्व नहीं होती अत: वह प्रमाण नहीं हो सकती । इनके अनुसार प्रमाण वह ज्ञान होता है जो अपूर्व अर्थ को जानता है (अपूर्व= पहले  कभी न जाना गया, वह ) स्मृति में अपूर्वता नहीं होती अतः वह प्रमाण नहीं।

2/ मीमांसक:
कुमारिल (एक आचार्य) आदि मीमांसक ने स्मृति को प्रमाण नहीं माना। इनका कहना है की स्मृति गृहीतग्राही ज्ञान है। (गृहीतग्राही ज्ञान का अर्थ है ~ ग्रहण किये हुए ज्ञान को पुनः ग्रहण करना)और   गृहीतग्राही ज्ञान कभी प्रमाण नहीं बन सकता।मीमांसक बौद्ध आदि के अनुसार स्मृति गृहीतग्राही होने के कारण या आप यू कह दे की अपूर्व अर्थ का प्रकाशन न होने के कारण अप्रमाण हैं।
अब इस आपेक्ष के उपरांत स्मृति को प्रमाण साबित करते हुए जैन अपने पक्ष को पुष्ट इस प्रकार करते हैं:-जैन कहते हैं की पहले से गृहीतग्राही हर ज्ञान अप्रमाण कहा जाए तब तो फिर यदि किसी व्यक्ति ने पहले पर्वत पर उठते हुए धुंए को देख कर वहां अग्नि है ऐसा अनुमान से जाना और फिर वहां on the spot जाकर अनुमान से जानी हुई अग्नि को प्रत्यक्ष से जाना तो वह प्रत्यक्ष भी अप्रमाण कहलाएगा।
क्योंकि यहाँ पर भी गृहीतग्राही होने के कारण अपूर्वता नहीं हैं।क्योंकि जिस अग्नि को अनुमान से जाना उस अग्नि को ही प्रत्यक्ष से जाना गया हैं।जैनो का कहना हैं की अनुमान से जानी हुई अग्नि को प्रत्यक्ष से जानने पर उस में कुछ अपूर्वता रहती हैं।अतः जब प्रत्यक्ष प्रमाण हैं तो स्मृति को अप्रमाण क्यों माने ?

3/नैयायिक :

ये स्मृति को प्रमाण नहीं मानते, इसका कारण हैं यह कहते हैं की स्मृति पदार्थ जन्य नहीं हैं।अब जैन कहते हैं की यदि नैयायिक स्मृति को प्रमाण नहीं मानते तो उन्हें अनुमान को भी प्रमाण मानने में कठिनाई होगी(जबकि नैयायिक अनुमान को प्रमाण मानते हैं-इसकी हम आगे चर्चा करेंगे)।
एक उदहारण से जैन अपने पक्ष पुष्ट करते हैं-जैसे सुबह नदी में बाढ देख कर रात में वर्षा होने का अनुमान किया जाता हैं।
यहाँ पर भी रात्रि में हुई वर्षा को हमने प्रत्यक्ष नहीं देखा था,फिर भी वर्षा का अनुमान कर लिया, तो यह  अनुमान जिसे नैयायिक  प्रमाण मानते हैं,ये कैसे संभव होगा ?
अतः जैन कहते हैं की स्मृति अर्थ जन्य (पदार्थजन्य) न होने पर भी प्रमाण हैं।

Conclusion:

जैनो के अनुसार स्मृति प्रमाण हैं, क्योंकि उसका अपना स्वरुप, कारण, विषय एवं प्रयोजन हैं।
प्रमाण का आधार  अपूर्वता ,अगृहीतग्राहिता या अर्थ जन्य नहीं अपितु  प्रमाण की कसोटी हैं -
अविसंवादिता (यथार्थ ज्ञान) हैं।और यह अविसंवादीता स्मृति में पायी जाती हैं।अत:स्मृति प्रमाण हैं।

'प्रत्यभिज्ञा'
2/ प्रत्यभिज्ञा :- स्मृति के पश्चात् यह परोक्ष प्रमाण का दूसरा भेद है।
प्रत्यभिज्ञा अनुभव और स्मृति के योग से उत्पन्न होता है । जैसे:- यह वही है, यह उसके समान है, यह उससे भिन्न है, विलक्षण है,
प्रतियोगी है आदि।
अर्थात् की यह एक संकलनात्मक ज्ञान हुआ।
A/.स्मृति का कारण जहाँ धारणा है, वहाँ  प्रत्यभिज्ञा के दो कारण है- प्रत्यक्ष और स्मृति।

B/.  स्मृति का विषय जहाँ अनुभूत पदार्थ है, वहाँ प्रत्यभिज्ञा का स्वरूप, स्मृति और प्रत्यक्ष इन दोनों अवस्थाओं के बीच रहा एकत्व है।

C/.  स्मृति का स्वरूप जहाँ 'वह मनुष्य है' ; वहाँ प्रत्यभिज्ञा का स्वरूप, 'यह वही मनुष्य है' है।

conclusion:  'यह' मनुष्य इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय है, और 'वही' स्मृति में है।
इन दोनों का प्रत्यक्ष और स्मृति का योग हो जाने पर जो ज्ञान होता है वह प्रत्यभिज्ञा है।

जैनों के अतिरिक्त अन्य किसी ने भी प्रत्यभिज्ञा के स्वतन्त्र प्रमाण्य को स्वीकार नहीं किया। एक उदाहरण से समझेंकिसी एक व्यक्ति ने किसी व्यक्ति को बताया, जो दूध और पानी को अलग करे, वह हंस होता है। वक्ता के ये दो शब्द उसके मन में संस्कार स्वरूप निर्मित हो गए। एक दिन उसने देखा की पक्षी की चोंच प्याले में पड़ी और दूध फट गया। क्षीर, नीर अलग हो गए।
यहाँ उस व्यक्ति के प्रत्यक्ष और स्मृति दोनों का योग हुआ, और वह हंस नामक पक्षी को जान गया।
 इस प्रकार स्मृति और प्रत्यक्ष के निमित्त से होने वाले जितने संकलनात्मक ज्ञान हैं, वे सब प्रत्यभिज्ञा के ही प्रकार हैं।

जैनों के अनुसार प्रत्यभिज्ञा ज्ञान परोक्ष प्रमाण है, क्योंकि उसका अपना स्वरूप, कारण तथा विषय है। प्रत्यभिज्ञा में भी यथार्थ ज्ञान होता है,अतः वह भी प्रमाण है।

'तर्क'

3/. परोक्ष  प्रमाण का तीसरा प्रकार 'तर्क' है ।
इसका अपना स्वतन्त्र कार्य है। चिंतन के क्षेत्र में तर्क का महत्व बहुत पहले से है और न्याय शास्त्र में इसकी विशेष भूमिका रही है। अब मुझे आप लोगो को दो नए शब्दों से परिचित करवाना होगा-अन्वय और व्यतिरेक । अन्वय और व्यतिरेक के निर्णय को तर्क कहा जाता है।

A/ अन्वय: " यत्र यत्र धूमः तत्र- तत्र वह्नि"। जहाँ जहाँ धुँआ होता है, वहाँ- वहाँ अग्नि होती है। अब देखिये यहाँ दो चीजे हैं -
1/ साधन और 2/ साध्य

इस उपरोक्त पंक्ति में साधन "धुँआ" है (साधन= medium)। और
साध्य अग्नि है, अर्थात् हमारा लक्ष्य अग्नि को जानना है और अग्नि को जानने के लिए साधन धुँआ होता है।
अब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे की जहाँ-जहाँ धूम (साधन) है, वहाँ-वहाँ अग्नि (साध्य) है।
अर्थात् साधन के होने पर साध्य के होने को अन्वय कहते हैं।इसे तर्क की भाषा में अन्वय व्याप्ति भी कह देते हैं।

B/ व्यतिरेक:- साध्य के अभाव में साधन का अभाव होना व्यतिरेक है। जैसे- जहाँ-जहाँ अग्नि का अभाव है, वहाँ-वहाँ धूम का भी अभाव है । हम यह न भूलें अग्नि साध्य है, धूम साधन है। धुँआ देखकर ही हम अग्नि के होने को जानते हैं, अग्नि के अभाव में धुँए का भी अभाव होता है। अतः साध्य के न होने पर साधन के न होने को व्यतिरेक कहा जाता है । इसे तर्क की भाषा में व्यतिरेक व्याप्ति  कहते हैं।

अन्वय और व्यतिरेक के सम्बन्ध का ज्ञान तर्क से होता है।अतः तर्क का विषय है व्याप्ति को ग्रहण करना। अनुमान के लिए व्याप्ति की अनिवार्यता होती है, और व्याप्ति के लिए तर्क की अनिवार्यता होती है।क्योंकि तर्क के बिना व्याप्ति की सत्यता निर्णय नहीं किया जा सकता। प्रायः सभी परम्पराएँ  जो तर्क शास्त्रीय हैं, इसके महत्व को स्वीकार करती हैं। इनमें यदि मतभेद हो, तो वह अपने प्रामाण्य के विषय में है। अर्थात् कि कोई उसे प्रमाण और कोई उसे अप्रमाण मानता है।

तर्क प्रमाण या अप्रमाण:  जैन परम्परा में तर्क प्रमाण रूप से स्वीकृत है। जहाँ-जहाँ धूम होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है- यह व्याप्ति है। यह व्याप्ति का ज्ञान हमें तर्क प्रमाण के द्वारा होता है।

'अनुमान'

4/. अनुमान: यह न्याय शास्त्र का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। चार्वाक के
अतिरिक्त अन्य सभी भारतीय दर्शन
'अनुमान प्रमाण' को स्वीकार करते हैं।
अनु +मान= अनुमान।
अनु का अर्थ है पश्चात् और मान का अर्थ है ज्ञान। अर्थात् बाद मे होने वाला ज्ञान अनुमान है।

भिक्षुन्याय कर्णिका में अनुमान की परिभाषा है– 'साधनात् साध्यज्ञानमनुमानम्' । साधन से साध्य का ज्ञान करना अनुमान है।
इस परिभाषा से यह फलित होता है कि अनुमान के मुख्य दो अंग है
 1/ साधन और 2/ साध्य।

1/. साधन प्राय: प्रत्यक्ष होता है और साध्य परोक्ष होता है। हम सबसे पहले साधन को (धूम को) प्रत्यक्ष देखते हैं।
फिर जहाँ-जहाँ धुआँ होता है वहाँ-वहाँ अग्नि होती है। इस व्याप्ति की स्मृति करते हैं और उसके बाद साध्य
( अग्नि) का ज्ञान करते हैं।

उदाहरण स्वरुप: पर्वत पर धुआँ है क्योंकि वहाँ पर अग्नि है। इस अनुमान वाक्य मे धूम साधन है।  और अग्नि साध्य है। और जिससे सिद्ध किया जाता हैं वह साधन कहलाता है। पर्वत पर उठता हुआ धुआँ जो कि साधन है, वह हमें प्रत्यक्ष दिखाई देता है और उस धुएँ को देखकर हम पर्वत पर अग्नि होने का अनुमान कर लेते हैं।
जैन दर्शन में 'अनुमान' (परोक्ष प्रमाण) के दो भेद हैं।

A/  स्वार्थानुमान: जो अपने अज्ञान की निवृति करने में समर्थ हो, वह स्वार्थानुमान है ।
B/  जो दुसरों के अज्ञान को दूर करने में समर्थ हो, वह परार्थानुमान है।

1/. दूसरे शब्दों में अनुमान के मानसिक क्रम को स्वार्थानुमान और वाचिक क्रम को परार्थानुमान कहते हैं।
2/. स्वार्थानुमान में अनुमान करने वाला स्वयं अपने संशय की निवृति करता है और परार्थानुमान में दुसरों की संशय निवृति के लिए कुछ वाक्यों का प्रयोग करता है जिसे पंच अवयव वाक्य कहते हैं।

उदाहरण स्वरुप : स्वार्थानुमान में व्यक्ति स्वयं धुएँ को देख कर अनुमान
कर लेता है। उसे किसी प्रकार के वचनों की सहायता लेनी नहीं पड़ती।
पर जब उसी बात का किसी दूसरे को अनुमान करवाना होता है तो उसे कुछ वाक्य बोलकर ही समझाया जा सकता है। ये वाक्य ही अनुमान के अवयव कहलाते हैं। ये पांच अवयव निम्न हैं।

1/ प्रतिज्ञा:- पर्वत अग्नि से युक्त है।
2/ हेतु:-  क्योंकि वहाँ धुँआ है।
3/  उदाहरण:- जहाँ जहाँ धुँआ होता है , वहाँ वहाँ अग्नि होती है। जैसे - रसोई घर।
4/  उपनय:  क्योंकि पर्वत पर धुँआ है।
5/  निगमन:  इसीलिए पर्वत पर अग्नि है।

Notable words:
1. व्याप्ति: किसी एक पदार्थ में दूसरे पदार्थ का मिला होना
2. अन्वयी : पाया जाने वाला
3. व्यतिरेकी: न पाया जाने वाला

प्रश्न - परोक्ष प्रमाण के सारे भेद क्या मति के भेद ही है, सिर्फ आगम को छोड़कर जो कि श्रुतज्ञान का भेद लग रहा है ।
Answer: - मति श्रुत दोनों मिले जुले से ही होंगें।
Question - अगर हाँ - तो क्या अवग्रह, इहा, अवाय, धारणा आदि के साथ स्मृति आदि का कोई सम्बन्ध है?
Answer -स्मृति का संबंध धारणा के साथ है। धारणा पक्की हो कर स्मृति बन जाती है।
Question - जैसे ये साँप ही है, यहां यथार्थ ज्ञान में आया ज्ञान मीमांसा में ऐसा निश्चयात्मक ज्ञान अवाय में आता है  ।
Answer - आ सकता है।
Question - ऐसे ही अनुमान यहां ईहा जैसा लग रहा है । दोनों वर्तमान में ही है । स्मृति भूतकाल से है ।
Answer अनुमान पक्का करके आप धारणा भी बना सकते हैं। स्मृति तो definitely भूतकाल है।

5/  आगम यह परोक्ष प्रमाण का अंतिम भेद है।
 जैन आगमिक परम्परा में इसका आगमिक नाम श्रुत है। जैसे जैन आगमिक परम्परा का मतिज्ञान जैन तार्किक परम्परा में  सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष के नाम से अभिहित हुआ।वैसे ही श्रुत भी आगम के नाम से अभिहित हुआ।

Actually- आगम श्रुत ज्ञान या शब्द ज्ञान है।  उपचार से आप्त वचन या द्रव्य श्रुत को भी आगम कहा जाता हैं।
 किन्तु वास्तव में आगम वह ज्ञान है, जो श्रोता या पाठक को आप्त वचन की मौखिक या लिखित वाणी से होता है।

जैन दर्शन सम्मत श्रुत ज्ञान का क्षेत्र काफी व्यापक है।  यह सभी असर्वज्ञ प्राणियों में होने वाला वाच्यवाचक संबंधात्मक ज्ञान है, जो शब्द, संकेत आदि माध्यमों से होता है।

चार्वाक दर्शन के अनुसार कोई आप्त नहीं ,अतः किसी के वचन प्रमाण नहीं हो सकते। वैशेषिक दर्शन और बौद्ध दर्शन के अनुसार शब्द प्रमाण अनुमान का ही रूप है। जैन दर्शन को ये दोनों ही मत मान्य नहीं हैं ।  शब्द सुनते ही श्रोता उसका अर्थ समझ जाता हैं ।  अतः उसे घट शब्द सुनने के बाद 'घट' शब्द और 'घट' पदार्थ में व्याप्ति सम्बन्ध नहीं जोड़ना पड़ता।  अतः शब्द स्वतंत्र प्रमाण है,अनुमान के अधीन नहीं है। शब्द सुनने पर यदि अवबोध ना हो ,उसके लिए  व्याप्ति का सहारा लेना पड़े तो आप शब्द को प्रमाण कहना उचित नहीं,- ऐसा कह सकते हैं। actually वह अनुमान के अंतर्गत नहीं गिना जा सकता।
जैन दृष्टि के अनुसार आगम स्वतः प्रमाण, पौरुषेय तथा आप्त  प्रणीत होता है। ये दो प्रकार के हैं।
1.लौकिक आगम
2.लोकोत्तर आगम

1. लौकिक आगम:-  जो जिस समय जिस लौकिक विषय  का यथार्थ  ज्ञान एवं यथार्थ वक्ता होता है, वह आप्त है। उसके वचन लौकिक आगम हैं।
2.लोकोत्तर आगम:- आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म का यथार्थ ज्ञान रखने वाला तथा यथार्थवादी महापुरुष लोकोत्तर आप्त कहलाता है।  उसके द्वारा प्रतिपादित सत्य लोकोत्तर आगम के विषय हैं।

 वस्तुतः जैन दृष्टि  से पुस्तक, ग्रन्थ ,आदि उस ज्ञान के साधन होने से उपचारतः आगम हैं।
मुख्य आगम तो वह आप्त स्वयं हैं।
अतः आगम पुरुष है, ग्रन्थ नहीं।
जिन ग्रंथों में प्रत्यक्षयुक्ति तथा तर्क नहीं चल सकते, उन परोक्ष और अहेतुगम्य विषयों में आगम ही एक मात्र ज्ञान का साधन है।  अतः आगम को प्रमाण  न मानने वाले दार्शनिक प्रस्थानों के समक्ष उन विषयों को जानने का कोई आधार नहीं।

Conclusion: जैन परोक्ष प्रमाण के, स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान,
और आगम, ये पाँच भेद हैं।